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गद्य-साहित्य-परंपरा का प्रवर्तन

नागरीप्रचारिणी सभा अपनी स्थापना के कुछ ही दिनों पीछे दबाई नागरी के उद्धार के उद्योग में लग गई। संवत् १९५२ में जब इस प्रदेश के छोटे लाट सर ऐटनी (पीछे लार्ड) मैकडानल काशी में आए तब सभा ने एक आवेदन-पत्र उनको दिया और सरकारी दफ्तरों से नागरी को दूर रखने से जनता को जो कठिनाइयाँ हो रही थीं और शिक्षा के सम्यक् प्रचार में जो बाधाएँ पड़ रही थीं, उन्हें सामने रखा। जब उन्होंने इस विषय पर पूरा विचार करने का वचन दिया तब से बराबर सभा व्याख्यानों और परचों द्वारा जनता के उत्साह को जाग्रत करती रही। न जाने कितने स्थानों पर डेपुटेशन भेजे गए और हिंदी भाषा और नागरी अक्षरों की उपयोगिता की ओर ध्यान आकर्षित किया गया। भिन्न-भिन्न नगरों में सभा की शाखाएँ स्थापित हुई। संवत् १९५५ में एक बड़ा प्रभावशाली डेपुटेशन––जिसमे अयोध्या-नरेश महाराज प्रतापनारायणसिंह, माँडा के राजा रामप्रसादसिह, आवागढ़ के राजा बलवंतसिंह, डाक्टर सुंदरलाल और पंडित् मदनमोहन मालवीय ऐसे मान्य और प्रतिष्ठित लोग थे––लाट साहब से मिला और नागरी का मेमोरियल अर्पित किया।

उक्त मेमोरियल की सफलता के लिये कितना भीषण उद्योग प्रांत भर में किया गया था, यह बहुत लोगों को स्मरण होगा। सभा की ओर से न जाने कितने सज्जन सब नगरों में जनता के हस्ताक्षर लेने के लिये भेजे गए जिन्होंने दिन को दिन और रात को रात नहीं समझा। इस आंदोलन के प्रधान नायक देशपूज्य श्रीमान् पंडित् मदनमोहन मालवीयजी थे। उन्होंने "अदालती लिपि और प्राइमरी शिक्षा" नाम की एक बड़ी अँगरेजी पुस्तक, जिसमे नागरी को दूर रखने के दुष्परिणामों की बड़ी ही विस्तृत और अनुसंधान-पूर्ण मीमांसा थी, लिखकर प्रकाशित की। अंत में संवत् १९५७ में भारतेदु के समय से ही चले आते हुए उस उद्योग का फल प्रकट हुआ और कचहरियों में नागरी के प्रवेश की घोषणा प्रकाशित हुई।

सभा के साहित्यिक आयोजनों के भीतर हम बराबर हिंदी-प्रेमियों की सामान्य आकाक्षाओं और प्रवृत्तियों का परिचय पाते चले आ रहे है। पहले ही वर्ष "नागरीदास का जीवनचरित्र" नामक जो लेख पढ़ा गया वह कवियों के विषय में बढ़ती हुई लोकजिज्ञासा का पता देता है। हिंदी के पुराने