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गद्य-साहित्य-परंपरा का प्रवर्त्तन

निज भाषा-उन्नति अहै, सब उन्नति कौ मूल।
बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय कौ सूल॥

इसी प्रकार पंडित प्रतापनारायण मिश्र भी "हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान" का राग अलापते फिरते थे। कई स्थानों पर हिंदी-प्रचार के लिये सभाएँ स्थापित हुईं। बाबू तोताराम द्वारा स्थापित अलीगढ़ की "भाषासंवर्द्धिनी" सभा का उल्लेख हो चुका है। ऐसी ही एक सभा सन् १८८४ में "हिंदी उद्धारिणि प्रतिनिधि मध्य-सभा" के नाम से प्रयाग में प्रतिष्ठित हुई थी। सरकारी दफ्तरों में नागरी के प्रवेश के लिये बाबू हरिश्चंद्र ने कई बार उद्योग किया था। सफलता न प्राप्त होने पर भी इस प्रकार का उद्योग बराबर चलता रहा। जब लेखकों की दूसरी पीढ़ी तैयार हुई तब उसे अपनी बहुत कुछ शक्ति प्रचार के काम में भी लगानी पड़ी।

भारतेंदु के अस्त होने के उपरांत ज्यों ज्यों हिंदी-गद्य-साहित्य की वृद्धि होती गई त्यों त्यों प्रचार की आवश्यकता भी अधिक दिखाई पड़ती गई। अदालती भाषा उर्दू होने से नवशिक्षितों की अधिक संख्या उर्दू पढ़नेवालों की थी जिससे हिंदी-पुस्तकों के प्रकाशन का उत्साह बढ़ने नहीं पाता था। इस साहित्य-संकट के अतिरिक्त नागरी का प्रवेश सरकारी दफ्तरों में न होने से जनता का घोर संकट भी सामने था। अतः संवत् १९५० में कई उत्साही छात्रों के उद्योग से, जिनमें बाबू श्यामसुंददास, पंडित रामनारायण मिश्र और ठाकुर शिवकुमारसिंह मुख्य थे, काशी-नागरीप्रचारिणी सभा की स्थापना हुई। सच पूछिए तो इस सभा की सारी समृद्धि और कीर्त्ति बाबू श्यामसुंदरदासजी के त्याग और सतत परिश्रम का फल है। वे ही आदि से अंत तक इसके प्राण स्वरूप स्थित होकर बराबर इसे अनेक बड़े उद्योगों में तत्पर करते रहे। इसके प्रथम सभापति भारतेंदुजी के फुफेरे भाई बाबू राधाकृष्णदास हुए। इसके सहायकों में भारतेंदु के सहयोगियों में से कई सज्जन थे, जैसे––रायबहादुर पंडित लक्ष्मीशंकर मिश्र एम॰ ए॰, खङ्गविलास प्रेस के स्वामी बाबू रामदीनसिंह, 'भारत-जीवन' के अध्यक्ष बाबू रामकृष्ण वर्मा, बाबू गदाधरसिंह, बाबू कार्त्तिकप्रसाद खत्री इत्यादि। इस सभा के उद्देश्य दो हुए––नागरी अक्षरों का प्रचार और हिंदी-साहित्य की समृद्धि।