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गद्य-साहित्य का आविर्भाव

१९३८ में उनकी मृत्यु हुई। जिस दिन उनका देहांत हुआ। उस दिन उनके मुँह से सहसा निकला कि "भारत में भाषा के लेखक दो हैं––एक काशी में, दूसरा पंजाब में परंतु आज एक ही रह जायगा।" कहने की आवश्यकता नहीं कि काशी के लेखक से अभिप्राय हरिश्चद्र से था।

राजा शिवप्रसाद "आम पसंद" और "खास पसंद" भाषा का उपदेश ही देते रहे, उधर हिंदी अपना रूप आप स्थिर कर चली। इस बात में धार्मिक और सामाजिक आंदोलनों ने भी बहुत कुछ सहायता पहुँचाई। हिंदी गद्य की भाषा किस दिशा की ओर स्वभावतः जीना चाहती है, इसकी सूचना तो काल अच्छी तरह दे रहा था। सारी भारतीय भाषाओं को चरित्र चिरकाल से संस्कृत की परिचित और भावपूर्ण पदावली का आश्रय लेता चला आ रहा था। अतः गद्य के नवीन विकास में उस पदावली का त्याग और किसी विदेशी पदावली का सहसा ग्रहण कैसे हो सकता था? जब कि बँगला, मराठी आदि अन्य देशी भाषाओं का गद्य परंपरागत संस्कृत पदावली का आश्रय लेता हुआ चल पड़ा था तब हिंदी-गद्य उर्दू के झमेले में पड़कर कब तक रुका रहता? सामान्य संबंध-सूत्र को त्यागकर दूसरी देश-भाषाओं से अपना नाता हिंदी कैसे तोड़ सकती थी? उनकी सगी बहन होकर एक अजनबी के रूप में उनके साथ वह कैसे चल सकती थी? जब कि यूनानी और लैटिन के शब्द योरप की भिन्न भिन्न मूलों से निकली हुई देश-भाषाओं के बीच एक प्रकार का साहित्यिक संबंध बनाए हुए हैं तब एक ही मूल से निकली हुई आर्य-भाषाओं के बीच उस मूल-भाषा के साहित्यिक शब्दों की परंपरा यदि संबंध-सूत्र के रूप में चली आ रही हैं तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है?

कुछ अँगरेज विद्वान् संस्कृतगर्भित हिंदी की हँसी उड़ाने के लिये किसी अँगरेजी वाक्य में उसी मात्रा में लैटिन के शब्द भरकर पेश करते हैं। उन्हें समझना चाहिए कि अँगरेजी का लैटिन के साथ मूल संबंध नहीं है; पर हिंदी, बँगला, मराठी, गुजराती आदि भाषाएँ संस्कृत के ही कुटुंब की हैं––उसी के प्राकृतिक रूपों से निकली हैं। इन आर्यभाषाओं का संस्कृत के साथ बहुत धनिष्ट संबंध है। इन भाषाओं के साहित्य की परंपरा को भी संस्कृत-साहित्य की परंपरा