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हिंदी-साहित्य का इतिहास


भारत का हित वे सच्चे हृदय से चाहते थे। राजा लक्ष्मणसिंह, भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रतापनारायण मिश्र, कार्त्तिकप्रसाद खत्री, इत्यादि हिंद-लेखकों से उनका बराबर हिंदी में पत्र-व्यवहार रहता। उस समय के प्रत्येक हिंदी-लेखक के घर में पिन्काट साहब के दो-चार पत्र मिलेंगे। हिंदी के लेखकों और ग्रंथकारों का परिचय इँगलैंड वालों को वहाँ के पत्रों में लेख लिखकर वे बराबर दिया करते थे। संवत् १९५७ (नवंबर सन् १८९५) में वे रीआ घास (जिसके रेशों से अच्छे कपड़े बनते थे) की खेती का प्रचार करने हिंदुस्तान में आए, पर साल भरसे कुछ उपर ही यहाँ रह पाए थे कि लखनऊ में उनका देहांत (७ फरवरी १८९६) हो गया। उनका शरीर भारत की मिट्टी में ही मिला है।

संवत् १९१९ में जब राजा लक्ष्मणसिंह ने 'शकुंतला-नाटक' लिखा तब उसकी भाषा देख वे बहुत ही प्रसन्न हुए और उसका एक बहुत सुंदर परिचय उन्होंने लिखा। बात यह थी कि यहाँ के निवासियों पर विदेशी प्रकृति और रूप-रंग की भाषा का लादा जाना वे बहुत अनुचित समझते थे। अपना यह विचार उन्होंने अपने उस अंगरेजी लेख में स्पष्ट रूप से व्यक्त किया है जो उन्होंने बा॰ अयोध्याप्रसाद खत्री के "खड़ी बोली का पद्य" की भूमिका के रूप में लिखा था। देखिए, उसमें वे क्या कहते हैं––

"फारसी-मिश्रित हिंदी (अर्थात् उर्दू या हिंदुस्तानी) के अदालती भाषा बनाए जाने के कारण उसकी बड़ी उन्नति हुई। इससे साहित्य की एक नई भाषा ही खड़ी हो गई। पश्चिमोत्तर प्रदेश के निवासी, जिनकी यह भाषा कही जाती है, इसे एक विदेशी भाषा की तरह स्कूलों में सीखने के लिए विवश किए जाते हैं।"

पहले कहा जा चुका है कि राजा शिवप्रसाद ने उर्दू की ओर झुकाव हो जाने पर भी साहित्य की पाठ्यपुस्तक "गुटका" में भाषा का आदर्श हिंदी ही रखा। उक्त गुटका में उन्होंने "राजा भोज का सपना", "रानी केतकी की कहानी" के साथ ही साथ राजा लक्ष्मणसिंह के "शकुंतला नाटक" का भी बहुत सा अंश रखा। पहला गुटका शायद संवत् १९२४ में प्रकाशित हुआ था।

संवत् १९१९ और १९४२ के बीच कई संवादपत्र हिंदी में निकले "प्रजा हितैषी" का उल्लेख हो चुका है। संवत् १९२० में 'लोकमित्र' नाम का एक