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आधुनिक-काल


कठिन समझिए। विक्रम की अठारहवी शताब्दी को लिखी "शृंगारशतक" की एक टीका की कुछ पंक्तियाँ देखिए––

"उन्मत्तप्रेमसर भादालभत्ते––यदगनाः।
तत्र प्रत्यूहमाधातुं ब्रह्मापि खलु कातरः॥"

"अंगना जु है स्त्री सु। प्रेम के अति आवेश कर। जु कार्य करना चाहति है ता कार्य विषै। ब्रह्माऊ। प्रत्यूहं आघातु। अंतराउ कीवे कहँ। कातर। काइरु है। काइरु कहावै असमर्थ। जु कछु स्त्री कर्यो चाहै सु अवस्य करहिं। ताको अतराउ ब्रह्मा पहँ न करयो जाइ और की कितीक बात"।

आगे बढ़कर संवत् १८७२ की लिखी जानकीप्रसाद वाली रामचंद्रिका की प्रसिद्ध टीका लीजिए तो उसकी भाषा की भी यही दशा है––

"राघव-शर लाघव राति छत्र मुकुट यों हयो।
हंस सबल अंसु सहित मानहु उडि कै गयो॥"

"सबल कहे अनेक अनेक रंग मिश्रित है, अंसु कहे किरण जाके ऐसे जे सूर्य है तिन सहित मानो कलिंदगिरि शृंग तें हस कहे हस समूह उडि गयो है। यहाँ जाति विषै एक वचन है। हसन के सदृश श्वेत छत्र है और सूर्य्यन के सदृश अनेक रंग नगजटित मुकुट हैं"।

इसी ढंग की सारी टीकाओं को भाषा समझिए। सरदार कवि अभी हाल में हुए हैं। कविप्रिया, रसिकप्रिया, सतसई आदि की उनकी टीकाओं की भाषा और भी अनगढ़ और असंबद्ध है। सारांश यह है कि जिस समय गद्य के लिये खड़ी बोली उठ खड़ी हुई उस समय तक गद्य का विकास नहीं हुआ था, उसका कोई साहित्य खड़ा नहीं हुआ था। इसी से खड़ी बोली के ग्रहण में कोई संकोच नहीं हुआ।


खड़ी बोली का गद्य

देश के भिन्न भिन्न भागों में मुसलमानों के फैलने तथा दिल्ली की दरबारी शिष्टता के प्रचार के साथ ही दिल्ली की खड़ी बोली शिष्ट -समुदाय के परस्पर व्यवहार की भाषा हो चली थी। खुसरो ने विक्रम की चौदहवीं शताब्दी में ही