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रीतिकाल के अन्य कवि

आजु लुभायन ही गई बाग, बिलोकि प्रसून की पाँति रही पगि।
ताहि समै तहँ आए गोपाल, तिन्हैं लखि औरौं गयो हियरो ठगि॥
पै द्विजदेव न जानि पर्यो धौं कहा तेहि काल परे अँसुवा जगि।
सू जो कही, सखि! लोनो सरुप सो मो अँखियान को लोनी गई लगि॥


बाँके कहीने रातें कंज-छबि छीने माते,
झुकि झुकि झूमि झूमि काहू को कछू गनै न।
द्विजदेव की सौं ऐसी कनक बनाय बहु,
भाँतिन बगारे चित चाहन चहूँघा चैन॥
पेखि परे प्रात जौ पै गातन उछाह भरे,
बार बार तातें तुम्हें बूझती कछूक बैन।
एहो ब्रजराज! मेरो प्रेमधन लूटिबे को,
बीरा खाए आए कितै आपके अनोखे नैन॥


भूले भूले भौंर बन भाँवरे भरैंगे चहूँ,
फूलि फूलि किंसुक जके से रहि जायहै।
द्विजदेव की सौं वह कूजन बिसारि कूर,
कोकिल कलकी ठौर ठौर पछितायहै॥
आवत बसंत के न ऐहैं जौ पै स्याम तौ पै,
बावरी! बलाय सों, हमारेऊ उपाय हैं।
पीहैं पहिलेई तें हलाहल मँगाय या,
कलानिधि की एकौ कला चलन न पायहैं॥


घहरि घहरि घन सघन चहूँघा घेरि,
छहरि छहरि विष बूँद बरसावै ना।
द्विजदेव की सौं अब चूक मत दाँव,
एरे पातकी पपीहा! तू पिया की धुनि गावै ना॥

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