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रीतिकाल के अन्य कवि

कोमल, मनोहर, मधुर, सुरताल सने,
नूपुर-निनादनि सों कौन दिन बोलिहै।
नीके मन ही के बुंद-वृंदन सुमोतिन को,
गहि कै कृपा की अब चोंचन सों तोलिहै॥
नेम धरि छेम सों प्रभुद होय दीनद्याल,
प्रेम-कोकनद बीच कब धौ कलोलिहै।
चरन तिहारे जदुबंस-राजहंस! कब,
मरे मन-मानस में मंद मंद डोलिहैं?


चरन-कमल राजै, मंजु मंजीर बाजैं। गमन लखि लजावैं हंसऊ नाहिं पावैं॥
सुखुद कदम-छाहीं क्रीड़ते कुंज माहीं। लखि लखि हरि सोभा चित्त काको न लोभा?


बहु छुद्रन के मिलन तें हानि बली की नाहिं। जूथ जंबुकन तें नहीं, केहरि कहुँ नसि जाहिं॥
पराधीनता दुख महा, सुखी जगत स्वाधीन। सुखी रमत सुक बन विषै कनक पींजरे दीन॥

(४४) पजनेस––ये पन्ना के रहनेवाले थे। इनका कुछ विशेष वृत्तांत प्राप्त नहीं। कविता-काल इनका संवत् १९०० के आसपास माना जा सकता हैं। कोई पुस्तक तो इनकी नहीं मिलती पर इनकी बहुत सी फुटकल कविता संग्रह-ग्रंथों में मिलती और लोगों के मुँह से सुनी जाती है। इनका स्थान ब्रजभाषा के प्रसिद्ध कवियों में है। ठाकुर शिवसिंहजी ने 'मधुरप्रिया' और 'नखशिख' नाम की इनकी दो पुस्तकों का उल्लेख किया है, पर वे मिलती नहीं। भारतजीवन प्रेस ने इनकी फुटकल कविताओं का एक संग्रह "पजनेस प्रकाश" के नाम से प्रकाशित किया हैं जिसमें १२७ कवित्त-सवैएँ हैं। इनकी कविताओं को देखने से पता चलता है कि ये फारसी भी जानते थे। एक सवैया में इन्होंने फारसी के शब्द और वाक्य भरे है। इनकी रचना शृंगाररस की ही है पर उसमें कठोर वणों (जैसे ट, ठ, ड) का व्यवहार यत्र-तत्र बराबर मिलता है। ये 'प्रतिकूल-वर्णत्व' की परवा कम करते थे। पर इसका तात्पर्य यह नहीं कि कोमल अनुप्रासयुक्त ललित भाषा का व्यवहार इनमें नहीं है। पद-विन्यास इनका अच्छा है। इनके फुटकल कवित्त अधिक