भाषा लिखने-पढ़ने में व्यवहृत होती थी उसमें प्राकृत या अपभ्रंश शब्दों का थोड़ा या बहुत मेल अवश्य रहता था | उपयुक्त पुस्तकों में नरवइ बोध' के नाम (नरवइ = नरपति ) में ही अपभ्रंश का आभास है । इन पुस्तकों में अधिकतर संस्कृत ग्रंथों के अनुवाद हैं। यह बात उनकी भाषा के ढंग से ही प्रकट होती है । ‘विराट् पुराण’ संस्कृत के 'वैराट पुराण' का अनुवाद है। गोरखपथ के ये संस्कृत ग्रंथ पाए जाते हैं-
सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति, विवेक-मार्तड, शक्ति-संगम तंत्र, निरंजन पुराण, वैराट पुराण'।
हिंदी भाषा में लिखी पुस्तके अधिकतर इन्हीं के अनुवाद या सार हैं। हाँ, 'साखी’ और ‘बानी' में शायद कुछ रचना गोरख की हो । पद को एक नमूना देखिए-
स्वामी तुम्हई गुर गोसाईं । अम्हे जो सिव सबद एक बुझिवा ।।
निरारंवे चेला कृण विधि रहै। सतगुरु होइ स पुछया कहै ।।
अबधू रहिया हाटे बाटै रूप विरष की छाया ।
तजिवा काम क्रोध लोभ मोह संसार की माया ।।
सिद्व और योगियों का इतना वर्णन करके इस बात की ओर, ध्यान दिलाना हम आवश्यक समझते है कि उनकी रचनाएँ तात्रिक विधान, योगसाधना, आत्मनिग्रह, श्वास-निरोध, भीतरी चक्रो और नाड़ियों की स्थिति, अंतर्मुख साधना के महत्व इत्यादि की साप्रदायिक शिक्षा मात्र हैं, जीवन की स्वाभाविक अनुभूतियों और दशाओं से उनका कोई संबंध नहीं । अतः वे शद्ध साहित्य के अंतर्गत नही आतीं । उनको उसी रूप में ग्रहण करना चाहिए जिस रूप में ज्योतिष, आयुर्वेद आदि के ग्रंथ । उनका वर्णन यह केवल दो-बातों के विचार से किया गया है ।
(१) पहली बात है भाषा । सिद्धो की उद्धृत रचनाओं की भाषा देशभाषा मिश्रित अपभ्रश अर्थात् पुरानी हिंदी की काव्य-भाषा है, यह तो स्पष्ट है । उन्होंने भरसक उसी सर्वमान्य व्यापक काव्य-भाषा में लिखा है जो उस समय गुजरात, राजपूताने और ब्रजमंडल से लेकर बिहार तक लिखने