पृष्ठ:हिंदी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल.pdf/४१९

यह पृष्ठ प्रमाणित है।
३९४
हिंदी-साहित्य का इतिहास

कि ये एक बहुरंगी कवि थे। रचना की विविध प्रणालियों पर इनका पूर्ण अधिकार था।

इनकी लिखी इतनी पुस्तकों का पता है––

अन्योक्ति-कल्पद्रुम (सं॰ १९१२), अनुराग-बाग (सं॰ १८८८), वैराग्यदिनेश (सं॰ १९०६), विश्वनाथ-नवरत्न और दृष्टांत-तरंगिणी (सं॰ १८७९)

इस सूची के अनुसार इनका कविता-काल सं॰ १८७९ से १९१२ तक माना जा सकता है। 'अनुराग-बाग' में श्रीकृष्ण की विविध लीलाओं का बड़े ही ललित कवित्तो में वर्णन हुआ है। मालिनी छंद का भी बड़ा मधुर प्रयोग हुआ है। 'दृष्टात-तरंगिणी' में नीतिसंबंधी दोहे हैं। 'विश्वनाथ नवरत्न' शिव की स्तुति हैं। 'वैराग्यदिनेश' में एक ओर तो ऋतुओं आदि की शोभा का वर्णन है और दूसरी ओर ज्ञान-वैराग्य आदि का। इनकी कविता के कुछ नमूने दिए जाते हैं––


केतो सोम कला करौ, करौ सुधा को दान। नहीं चंद्रमणि जो द्रवै यह तेलिया पखान॥
यह तेलिया पखान, बड़ी कठिनाई जाकी। टूटी याके सीस बीस बहु बाँकी टाँकी॥
बरनै दीनदयाल, चंद! तुमही चित चेतौ। कूर न कोमल होहिं कला जौ कीजै केतौ॥



बरखै कहा पयोद इत मानि मोद मन माहिं। यह तौ ऊसर भूमि है अंकुर जमिहै नाहिं॥
अंकुर जमिहै नाहिं बरष सन जौ जल दैहै। गरजै तरजै कहा? बृथा तेरो श्रम जैहे॥
बरनै दीनदयाल न ठौर कुठौरहि परखै। नाहक गाहक बिना, बलाहक! ह्याँ तू बरसै॥



चल चकई तेहिं सर विषै, जहँ नहि रैन-बिछोह। रहत एकरस दिवस ही, सुहृद हंस-संदोह॥
सुहृद हँस संदोह कोह अरु द्रोह न जाको। भोगत सुख-अंबोह, मोह-दुख होय न ताको॥
बरनै दीनदयाल भाग बिन जाय न सकई। पिय-मिलाप नित रहै, ताहि सर चल तू चकई॥