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हिंदी-साहित्य का इतिहास

भाव और दूसरी ओर अनन्य प्रेम का भाव छलकता है। इनका हृदय प्रेम-रसपूर्ण था। इसी से इन्होंने कहा है कि "भगवत रसिक रसिक की बातें रसिक बिना कोउ समुझि सकै ना।" ये कृष्णभक्ति में लीन एक प्रेमयोगी थे। इन्होंने प्रेमतत्व का निरूपण बड़े ही अच्छे ढंग से किया है। कुछ पद्य नीचे दिए जाते हैं––

कुंजन तें उठि प्रात गात जमुना में धोवैं।
निधुबन करि दंडवत बिहारी को मुख जोवैं॥
करै भावना बैठि स्वच्छ थल रहित उपाध।
घर घर लेय प्रसाद लगै जब भोजन-साधा॥

संग करै भगवत रसिक, कर करवा, गूदरि गरे।
वृंदावन बिहरन फिरै, जुगल रूप नैनन भरे॥


हमारो वृंदावन उर और।
माया काल तहाँ नहिं ब्यापै जहाँ रसिक-सिरमौर॥
छूट जाति सत असत वासना, मन की दौरा-दौर।
भगवत रसिक बतायो श्रीगुरू अमल अलौकिक ठौर॥

(२१) श्री हठीजी––ये श्रीहितहरिवंशजी की शिष्य-परंपरा में बड़े ही साहित्यमर्मज्ञ और कला-कुशल कवि हो गए है। इन्होंने संवत् १८३७ में "राधासुधाशतक" बनाया जिसमें ११ दोहे और १०३ कवित्त-सवैए है। अधिकांश भक्तों की अपेक्षा इनमे विशेषता यह है कि इन्होंने कला-पक्ष पर भी पूरा जोर दिया है। इनकी रचना में यमक, अनुप्रास, उपमा, उत्प्रेक्षा आदि का बाहुल्य पाया जाता है। पर साथ ही भाषा या वाक्य-विन्यास में लद्धड़पन नहीं आने पाया है। वास्तव में "राधासुधाशतक" छोटा होने पर भी अपने देश का अनूठा ग्रंथ है। भारतेंदु हरिश्चंद्र को यह ग्रंथ अत्यत प्रिय था। उससे कुछ अवतरण दिए जाते हैं––

कलप लता के कैधौं पल्लव नवीन दोऊ,
हरन मंजुता के कज ताके बनिता के हैं।