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हिंदी-साहित्य का इतिहास

उत गकार मुख तें कढीं इतै कढ़ी जमधार।
'वार' कहन पायो नहीं, भई कटारी पार॥


आनि कै सलावत खाँ जोर कै जनाई बात,
तोरि धर-पंजर करेजे जाय करकी।
दिलीपति साहि को चलन चलिबे को भयो,
राज्यों गजसिंह को, सुनी जो बात बर की॥
कहै बनवारी बादसाही के तखत पास,
फरकि फरकि लोथ लोथिन सों अरकी।
कर की बड़ाई कै बड़ाई बाहिबे की करौ,
बाढ़ की बड़ाई, कै बढाई जमधर की॥

बनवारी कवि की शृंगाररस की कविता भी बड़ी चमत्कारपूर्ण होती थी। यमक लाने का ध्यान इन्हें विशेष रहा करता था। एक उदाहरण लीजिए––

नेह बर साने तेरे नेह बरसाने देखि,
यह बरसाने बर मुरली बजावैंगे।
साजु लाल सारी, लाल करैं लालसा री,
देखिबे की लालसारी ,लाल देखे सुख पावैंगे॥
तू ही उर् बसी, उर बसी नाहिं और तिय,
कोटि उरबसी तजि तोसों चित लावैंगे।
सजे बनवारी बनवारी तन आभरन,
गौरे तन वारी बनवारी आज आवैंगे॥

(२) सबलसिह चौहान––इनके निवासस्थान का ठीक निश्चय नहीं। शिवसिंहजी ने यह लिखकर की कोई इन्हें चंदागढ़ का राजा और कोई सबलगढ़ का राजा बतलाते हैं, यह अनुमान किया है कि ये इटावे के किसी गाँव के जमींदार थे। सबलसिंहजी ने औरंगजेब के दरबार में रहनेवाले किसी राजा मित्रसेन के साथ अपना संबध बताया है। इन्होंने सारे महाभारत की कथा दोहों चौपाइयों में लिखी है। इनका महाभारत बहुत बड़ा ग्रंथ है जिसे इन्होंने