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रीति-ग्रंथकार कवि

झुमडि झलानि चहुँ कोद तें उमहि आज,
धाराधर धारन अपार बरसत है॥


महाराज रामराज रावरो सजत दल,
होत मुख अमल अनंदित महेस के।
सेवत दरीन केते गब्बर गनीम रहैं,
पन्नग पताल त्योंही डरन खगेस के॥
कहैं परताप धरा धँसत त्रसत,
कसमसत कमठ-पीठि कठिन कलेस के।
कहरत कोल, दहरत है दिगीस दस,
लहरत सिंधु, थहरत फन सेस के॥

(५७) रसिक गोविंद––ये निबार्क संप्रदाय के एक महात्मा हरिव्यास की गद्दी के शिष्य थे और वृंदावन में रहते थे। हरिव्यासजी की शिष्यपरंपरा में सर्वेश्वरशरण देवजी बड़े भारी भक्त हुए है। रसिकगोविंदजी उन्हीं के शिष्य थे। ये जयपुर (राजपूताना) के रहने वाले और नटाणी जाति के थे। इनके पिता का नाम शालिग्राम, माता का गुमाना, चाचा का मोतीराम और बड़े भाई का बालमुकुंद था। इनका कविता-काल संवत् १८५० से १८९० तक अर्थात् विक्रम की उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से लेकर अंत तक स्थिर होता है। अब तक इनके ९ ग्रंथो का पता चला है––

(१) रामायण सूचनिका––३३ दोहों में अक्षर-क्रम से रामायण की कथा संक्षेप में कही गई है। यह सं॰ १८५८ के पहले की रचना है। इसके ढंग का पता इन दोहों से लग सकता है––

चकित भूप बानी सुनत, गुरु बसिष्ठ समुझाय।
दिए पुत्र तब, ताड़का मग में मारी जाय॥
छाँड़त सर मारिच उड्यो, पुनि प्रभु हत्यो सुबाह।
मुनि मख पूरन, सुमन सुर बरसत अधिक उछाह॥