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रीति-ग्रंथकार कवि

मुख-ससी ससि दून कला धरे। कि मुकता-गन जावक में भरे।
ललित कुंदकली अनुहारि के। दसन हैं वृषभानु-कुमारि के॥
सुखद जंत्र कि भाल सुहाग के। ललित मंत्र किधौं अनुराग के।
भ्रुकुटियों वृषभानु-सुता लसैं। जनु अनंग-सरासन को हँसें॥
मुकुर तौ पर-दीपति को धनी। ससि कलंकित, राहु-बिथा घनी।
अपर ना उपमा जग में लहैं। तब प्रिया! मुख के सम को कहै?

(५३) ब्रह्मदत्त––ये ब्राह्मण थे और काशीनरेश महाराज उदितनारायण सिंह के छोटे भाई बाबू दीपनारायणसिंह के आश्रित थे। इन्होंने संवत् १८६० 'विद्वद्विलास' और १८६५ में 'दीपप्रकाश' नामक एक अच्छा अलंकार का ग्रंथ बनाया। इनकी रचना सरल और परिमार्जित है। आश्रयदाता की प्रशंसा में यह कवित्त देखिए––

कुसल कलानि में, करनहार कीरति को,
कवि कोविदन को कलप-तरुवर है॥
सील सममान बुद्धि विद्या को निधान ब्रह्म,
मतिमान इसन को मानसरवर है॥
दीपनारायन, अवनीप को अनुज प्यारो,
दीन दुख देखत हरत हरबर है।
गाहक गुनी को, निरबाहक दुनी को नीको,
गनी गज-बकस, गरीबपरवर है॥


(५४) पद्माकर भट्ट––रीतिकाल के कवियों में सहृदय-समाज इन्हें बहुत श्रेष्ठ स्थान देता आता है। ऐसा सर्वप्रिय कवि इस काल के भीतर बिहारी को छोड़ दूसरा नहीं हुआ। इनकी रचना की रमणीयता ही इस सर्वप्रियता का एकमात्र कारण है। रीतिकाल की कविता इनकी और प्रतापसाहि की वाणी द्वारा अपने पूर्ण उत्कर्ष को पहुँचकर फिर हृासोन्मुख हुई। अतः जिस प्रकार ये अपनी परंपरा के परमोत्कृष्ट कवि है उसी प्रकार प्रसिद्धि में अंतिम भी। देश में जैसा इनका नाम गूँजा वैसा फिर आगे चलकर किसी और कवि का नहीं।

ये तैलंग ब्राह्मण थे। इनके पिता मोहनलाल भट्ट का जन्म बाँदे में हुआ