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हिंदी-साहित्य का इतिहास

मोतिन की माल तोरि चीर, सब चीरि डारै,
फेरि कै न जैहौं आली, दुख विकरारे हैं।
देवकीनंदन कहै चोखे नागछौनन के,
अलकैं प्रसून नोचि नोचि निरबाने हैं॥
मानि मुख चंद-भाव चोंच दई अधरन,
तीनौ ये निकुंजन में एकै तार तारे हैं।
ठौर ठौर डोलत मराल मतवारे, तैसे,
मोर मतवारे त्यों चकोर मतवारे हैं॥

(४४) महाराज रामसिंह––ये नरवलगढ़ के राजा थे। इन्होंने रस और अलंकार पर तीन ग्रंथ लिखे हैं––अलंकार-दर्पण, रसनिवास (सं॰ १८३९) और रसविनोद (सं॰ १८६०) अलंकार-दर्पण दोहों में है। नायिकाभेद भी अच्छा है। ये एक अच्छे और प्रवीण कवि थे। उदाहरण लीजिए––

सोहत सुंदर स्याम सिर, मुकुट मनोहर जोर।
मनों नीलमनि सैल पर, नाचत राजत मोर॥
दमकन लागी दामिनी, करन लगे घर रोर।
बोलति माती कोइलै, बोलत माते मोर॥

(४५) भान कवि––इनके पूरे नाम तक का पता नहीं। इन्होंने संवत् १८४५, में 'नरेंद्र-भूषन' नामक अलंकार का एक ग्रंथ बनाया जिससे केवल इतना ही पता लगता है कि ये राजा जोरावरसिंह के पुत्र थे और राजा रनजोरसिंह बुंदेले के यहाँ रहते थे। इन्होंने अलंकारों के उदाहरण शृंगाररस के प्रायः बराबर ही वीर, भयानक, अद्भुत आदि रसो के रखे है। इससे इनके ग्रंथ में कुछ नवीनता अवश्य दिखाई पड़ती है जो शृंगार के सैकड़ों वर्ष के पिष्टपेषण से ऊबे हुए पाठक को विराम सा देती है। इनकी कविता में भूषण की सी फड़क और प्रसिद्ध शृंगारियों की सी तन्मयता और मधुरता तो नहीं है, पर रचना प्राय: पुष्ट और परिमार्जित है। दो कवित्त नीचे दिए जाते हैं––

रन-मतवारे ये जोरावर दुलारे तब,
बाजत नगारे भए गालिब दिलीस पर।