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रीति-ग्रंथकार कवि

चुंबन में नाहीं, परिरंभन में नाहीं,
सब असन बिलासन में नाहीं ठीक ठाई हौ॥
मेलि गलबाहीं, केलि कीन्हीं चितबाही, यह
'हा' तें भली 'नाही' सो कहाँ ते सीखि आई हौ॥


उरज उरज धँसे, बसे उर आड़े लसे,
बिन गुन माल गरे धरे छवि छाए हौ।
नैन कवि दूलह हैं राते, तुतराते बैन,
देखे सुने सुख के समूह सरसाए हों॥
जाधक सों लाल भाल पलकन पीकलीकी,
प्यारे ब्रज चंद सुचि सूरज सुहाए हौ।
होत अरुनोद यहि कोद मति बसी आजु,
कौन घरबसी घर बसी करि आए हौ?


सारी की सरौंट सब सारी में मिलाय दीन्हीं,
भूषन की जेब जैसे जेब जहियतु है।
कहे कवि दूलह छिपाए रदछद मुख,
नेह देखे सौतिन की देह दहियतु है॥
बाला चित्रसाला तें निकसि गुरुजन आगे,
कीन्हीं चतुराई सो लखाई लहियतु है।
सारिका पुकारे "हम नाहीं, हम नाहीं",
"एजू! राम राम कहौं", 'नाहीं नाहीं' कहियतु है॥


फल विपरीत को जतन सों 'बिचित्र';
हरि उँचे होत वामन भे बलि के सदन में।
आधार बड़े तें बड़ों आधेय 'अधिक' 'जानौ,
चरन समायो नाहिं चौदहो भुवन में॥