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कालक्रम से गुथी उपर्युक्त वृत्तमालाएँ साहित्य के इतिहास के अध्ययन में कहाँ तक सहायता पहुँचा सकती थीं? सारे रचना-काल को केवल आदि, मध्य, पूर्व, उत्तर इत्यादि खंडों मे आँख मूंदकर बाँट देना--यह भी न देखना कि किस खंड के भीतर क्या आता है, क्या नहीं--किसी वृत्त-संग्रह को इतिहास नहीं बना सकता।

पाँच या छः वर्ष हुए, छात्रों के उपयोग के लिये मैंने कुछ संक्षिप्त नोट तैयार किए थे जिनसे परिस्थिति के अनुसार शिक्षित जन-समूह की बदलती हुई प्रवृत्तियों को लक्ष्य करके हिंदी-साहित्य के इतिहास के काल-विभाग और रचना की भिन्न-भिन्न शाखाओं के निरूपण का एक कच्चा ढाँचा खड़ा किया गया था। 'हिंदी शब्द-सागर' समाप्त हो जाने पर उसकी भूमिका के रूप में भाषा और साहित्य का विकास देना भी स्थिर किया गया अतः एक नियत समय के भीतर ही यह इतिहास लिखकर पूरा करना पड़ा। साहित्य का इतिहास लिखने के लिये जितनी अधिक सामग्री मैं जरुरी समझता था उतनी तो उस अवधि के भीतर न इकट्ठी हो सकी, पर जहाँ तक हो सका आवश्यक उपादान सामने रखकर यह कार्य्य पूरा किया।

इस पुस्तक में जिस पद्धति का अनुसरण किया गया है उसका थोड़े में उल्लेख कर देना आवश्यक जान पड़ता है।

पहले काल-विभाग को लीजिए। जिस काल-खंड के भीतर किसी विशेष ढंग की रचनाओं की प्रचुरता दिखाई पड़ी है वह एक अलग काल माना गया है और उसका नामकरण उन्ही रचनाओं के स्वरूप के अनुसार किया गया है । इस प्रकार प्रत्येक काल का एक निर्दिष्ट सामान्य लक्षण बताया जा सकता है। किसी एक ढंग की रचना की प्रचुरता से अभिप्राय यह है कि शेष दूसरे ढंग की रचनाओं में से चाहे किसी (एक) ढंग की रचना को ले वह परिमाण में प्रथम के बराबर न होगी; यह नहीं कि और सब ढंगों की रचनाएँ मिलकर भी उसके बराबर न होगी। जैसे, यदि किसी काल में पाँच ढंग की रचनाएँ १०,५,६,७ और २ के क्रम से मिलती है तो जिस ढंग की रचना की १० पुस्तके हैं उसकी प्रचुरता कही जायगी, यद्यपि शेष और ढंग की सब पुस्तकें मिलकर २० हैं। यह तो हुई पहली बात। दूसरी बात है ग्रंथों की प्रसिद्धि। किसी काल के