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सामान्य परिचय

मैथिली के अतिरिक्त इस प्रकार की प्राकृताभास पुरानी काव्यभाषा भी भनते रहे—

बालचंद बिज्जावइ भासा। दुहु नहिं लग्गइ दुज्जन-हासा॥

और दूसरी ओर कबीरदास अपनी अटपटी बानी इस बोली में सुना रहे थे—

अगिन जो लागी नीर में कंदो जलिया झारि।
उतर दक्षिण के पंडिता रहे बिचारि बिचारि॥

सारांश यह कि अपभ्रंश की यह परंपरा, विक्रम की १५वीं शताब्दी के मध्य तक चलती रही। एक ही कवि विद्यापति ने दो प्रकार की भाषा का व्यवहार किया है—पुरानी अपभ्रंश भाषा का और बोलचाल की देशी भाषा का। इन दोनों भाषाओं का भेद विद्यापति ने स्पष्ट रूप से सूचित किया है—

देसिल बसना सब जन मिट्ठा। तें तैसन जंपओं अवहट्ठा॥

अर्थात् देशी भाषा (बोलचाल की भाषा) सबको मीठी लगती है, इससे वैसा ही अपभ्रंश (देशी भाषा मिला हुआ) मैं कहता हूँ। विद्यापति ने अपभ्रंश से भिन्न, प्रचलित बोलचाल की भाषा को "देशी भाषा" कहा है अतः हम भी इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग कहीं कहीं आवश्यकतानुसार करेंगे। इस आदि काल के प्रकरण में पहले हम अपभ्रंश की रचनाओं का संक्षिप्त उल्लेख करके तब देशभाषा की रचनाओं का वर्णन करेंगे।