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हिंदी-साहित्य का इतिहास

अपेक्षा होती है उसका विकास नहीं हुआ। कवि लोग एक दोहे में अपर्याप्त लक्षण देकर अपने कविकर्म में प्रवृत्त हो जाते थे। काव्यांगो का विस्तृत विवेचन, तर्क द्वारा खंडन-संडन, नए नए सिद्धातों का प्रतिपदन आदि कुछ भी न हुआ। इसका कारण यह भी था कि उस समय गद्य का विकास नहीं हुआ था। जो कुछ लिखा जाता था वह पध में ही लिखा जाता था। पद्य में किसी बात की सम्यक् मींसासा या उस पर तर्क वितर्क हो नहीं सकता। इस अवस्था में 'चंद्रालोक' की यह पद्धति ही सुगम दिखाई पड़ी कि एक श्लोक या एक चरण में ही लक्षण कहकर छुट्टी ली।

उपर्युक्त बातों पर ध्यान देने से स्पष्ट हो जाता है कि हिंदी में लक्षण-ग्रंथ की परिपाटी पर रचना करने वाले जो सैंकड़ों कवि हुए वे आचार्य-कोटि में नहीं आ सकते। वे वास्तव में कवि ही थे। उनमें आचार्यत्व के गुण नहीं थे। उनके अपर्याप्त लक्षण साहित्यशास्त्र का सम्यक् बोध कराने में असमर्थ है। बहुत स्थलों पर तो उनके द्वारा अलंकार-आदि के स्वरूप को भी ठीक ठीक बोध नहीं हो सकता। कहीं कहीं तो उदाहरण भी ठीक नहीं है। 'शब्द-शक्ति' का विषय तो दो ही चार कवियों ने नाममात्र के लिये लिया है जिससे उस विषय का स्पष्ट बोध होना तो दूर रहा कहीं कहीं भ्रात धारणा अवश्य उत्पन्न हो सकती है। काव्य के साधारणतः दो भेद किए जाते है––श्रव्य और दृश्य। इनमें से दृश्य काव्य का निरूपण तो छोड़ ही दिया गया। सारांश यह कि इन रीतिग्रंथों पर ही निर्भर रहने वाले व्यक्ति का साहित्यज्ञान कच्चा ही समझना चाहिए। यह सब लिखने का अभिप्राय यहाँ केवल इतना ही है कि यह न समझा जाय कि रीतिकाल के भीतर साहित्यशास्त्र पर गंभीर और विस्तृत विवेचन तथा नई नई बातों की उद्भावना होती रहे।

केशवदास के वर्णन में यह दिखाया जा चुका है कि उन्होंने सारी सामग्री कहाँ कहाँ से ली। आगे होने वाले लक्षणग्रंथकार कवियों ने भी सारे लक्षण और भेद संस्कृत की पुस्तकों से लेकर लिखे हैं जो कहीं कहीं अपर्याप्त हैं। अपनी ओर से उन्होंने न तो अलंकार-क्षेत्र में कुछ मौलिक विवेचन किया, न रस-क्षेत्र में। काव्यांगों का विस्तृत समावेश दासजी ने अपने 'काव्य निर्णय' में किया है। अलकारों को जिस प्रकार उन्होने बहुत से छोटे छोटे प्रकरणो में