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भक्तिकाल की फुटकल रचनाएँ

धीर जलधर की सुनत धुनि धरकी औ,
दरकी सुहागिन की छोह-भरी छतियाँ॥
आई सुधि बर की, हिय में आनि खरकी,
सुमिरि प्रानप्यारी वह प्रीतम की बतियाँ।
बीती औधि आवन की लाल मनभावन की,
डग भई बावन की सावन की रतियाँ॥


बालि को सपूत कपिकुल-पुरहूत,
रघुवीर जू को दूत भरि रूप विकराल को।
युद्धमद गाढ़ो पाँव रोपि भयो ठाढ़ो, सेना-
पति बल बाढ़ो रामचंद्र भुवपाल को॥
कच्छप कहलि रह्यो, कुंडली टहलि रह्यो,
दिग्गज दहलि त्रास परो चकचाल को।
पाँव के धरत अति भार के परत भयो––
एक ही परत मिलि सपत-पताल को॥


रावन को वीर, सेनापति रघुवीर जू की
आयो है सरन, छाँड़ि ताहि मद-अंध को।
मिलत ही ताको राम कोप कै करी है ओप,
नाम जोय दुर्जनदलन दीनबंधु को॥
देखौ दानवीरता-निदान एक दान ही में,
दीन्हें दोऊ दान, को बखानै सत्यसंध को।
लंका दसकंधर को दीनी है विभीषन को,
संका विभीषन की सो दीनी दसकंध को॥

सेनापतिजी के भक्तिप्रेरित उद्गार भी बहुत अनूठे और चमत्कारपूर्ण है। "अपने करम करि हौ ही निबहौंगो तौ तौ हौ ही करतार, करतार तुम काहे के?" वाला प्रसिद्ध कवित्त इन्हीं का है।

(२०) पुहकर-कवि––ये परतापपुर (जिला मैनपुरी) के रहनेवाले थे,