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भक्तिकाल की फुटकल रचनाएँ

यद्यपि इस कवित्त में वृंदावन का नाम आया है पर इनके उपास्य राम ही जान पड़ते हैं, क्योंकि स्थान स्थान पर इन्होंने 'सियापति', 'सीतापति','राम' आदि नामों का ही स्मरण किया है। कवित्त-रत्नाकर इनका सबसे पिछला ग्रंथ जान पड़ता है, क्योंकि उसकी रचना संवत् १७०६ में हुई है, यथा––

संवत् सत्रह सै छ में, सेइ सियापति पाय।
सेनापति कविता सजी, सज्जन सजौ सहाय॥

इनका एक ग्रंथ 'काव्य-कल्पद्रुम' भी प्रसिद्ध है।

जैसा कि पहले कहा जा चुका है, इनकी कविता बहुत ही मर्मस्पर्शिनी और रचना बहुत ही प्रौढ़ प्रांजल है। जैसे एक ओर इनमें पूरी भावुकता थी वैसे ही दूसरी ओर चमत्कार लाने की पूरी निपुणता भी। श्लेष का ऐसा साफ उदाहरण शायद ही और कहीं मिले––

नाहीं नाहीं करै, थोरो माँगे सब दैन कहै,
मंगन को देखि पट देत बार बार है।
जिनके मिलत भली प्रापति को घटी होति,
सदा सुभ जनमत भावै, निरधार है॥
भोगो ह्वै रहत बिलसत अवनी के मध्य,
कन कन जोरै, दानपाठ परवार है।
सेनापति वचन की रचना निहारि देखौ,
दाता और सूम दोऊ कीन्हें इकसार है॥

भाषा पर ऐसा अच्छा अधिकार कम कवियों को देखा जाता है। इनकी भाषा में बहुत कुछ माधुर्य ब्रजभाषा का ही है, संस्कृत पदावली, पर अवलंबित नहीं। अनुप्रास और यमक की प्रचुरता होते हुए भी कहीं भद्दी कृत्रिमता नहीं आने पाई है। इनके ऋतुवर्णन के अनेक कवित्त बहुत से लोगों को कंठ है। रामचरित-संबधी कवित्त भी बहुत ही ओजपूर्ण है। इनकी रचना के कुछ नमूने दिए जाते हैं––

वानि सौं सहित सुबरन मुँह रहै जहाँ,
धरत बहुत भाँति अरथ-समाज को।

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