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हिंदी-साहित्य का इतिहास

प्रवृत्ति हो रही थी। कृपाराम ने जिस प्रकार रसरीति का अवलंबन कर नायिकाओं का वर्णन किया उसी प्रकार बलभद्र नायिका के अंगों को एक स्वतंत्र विषय बनाकर चले थे। इनका रचनाकाल संवत् १६४० के पहले माना जा सकता है। रचना इनकी बहुत प्रौढ़ और परिमार्जित है, इससे अनुमान होता है कि नखशिख के अतिरिक्त इन्होंने और पुस्तके भी लिखी होगी। संवत् १८९१ में गोपाल कवि ने बलभद्रकृत नखशिख की एक टीका लिखी जिसमें उन्होंने बलभद्र-कृत तीन और ग्रथों का उल्लेख किया है––बलभद्री व्याकरण, हनुमन्नाटक और गोवर्द्धनसतसई टीका। पुस्तकों की खोज में इनका 'दूषण विचार' नाम का एक और ग्रंथ मिला है जिसमें काव्य के दोषों का निरूपण है। नखशिख के दो कवित्त उद्धृत किए जाते है––

पाटल नयन कोकनद के से दल दोऊ,
बलभद्र बासर उनीदी लखो बाल मैं।
सोभा के सरोवर में बाडव की आभा कैधौं,
देवधुनी भारती मिली है पुन्यकाल मैं॥
काम-कैवरत कैधौं नासिका-उडुप बैठो,
खेलत सिकार तरुनी के मुख-ताल मैं।
लोचन सितासित में लोहित लकीर मानो,
बाँधे जुग मीन लाल रेशम की डोर मैं॥


मरकत के सूत, कैधौं पन्नग के पूत, अति
राजत अभूत तमराज कैसे तार हैं।
मखतूल-गुनग्राम सोभित सरस स्याम,
काम-मृग-कानन कै कुहू के कुमार हैं॥
कोप की किरन, कै जलज-नाल नील तंतु,
उपमा अनंत चारु चँवर सिंगार हैं।
कारे सटकारे भींजे सोंधे सों सुगंध बास,
ऐसे बलभद्र नवबाला तेरे बार हैं॥