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भक्तिकाल की फुटकल रचनाएँ

दोहों से मिलते जुलते हैं। पर इससे यह नहीं सिद्ध होता कि यह ग्रंथ बिहारी के पीछे का है, क्योंकि ग्रंथ में निर्माण-काल बहुत स्पष्ट रूप से दिया हुआ है––

सिधि निधि सिव मुख चंद्र लखि माघ सुद्दि तृतियासु।
हिततरंगिनी हौं रची कवि हित परम प्रकासु॥

दो में से एक बात हो सकती है––या तो बिहारी ने उन दोहों को जान बूझकर लिया अथवा वे दोहे पीछे से मिल गए। हिततरंगिणी के दोहे बहुत ही सरस, भावपूर्ण तथा परिमार्जित भाषा में हैं। कुछ नमूने देखिए––

लोचन चपल कटाच्छ सर, अनियारे विषपूरि।
मन-मृग बेधैं मुनिन के, जगजन सहत बिसूरि॥
आजु सवारे हौं गई, नंदलाल हित ताल।
कुमुद कुमुदिनी के भटू निरखे और हाल॥
पति आयो परदेस तें, ऋतु बसंत को मानि।
झमकि झमकि निज महल में, टहलैं करै सुरानि॥

(४) महापात्र नरहरि बंदीजन––इनका जन्म संवत् १५६२ और मृत्यु संवत् १६६७ में कही जाती है। महापात्र की उपाधि इन्हे अकबर के दरबार से मिली थी। ये असनी-फतेहपुर के रहनेवाले थे और अकबर के दरबार में इनका बहुत मान था। इन्होंने छप्यय और कवित्त कहे है। इनके बनाए दो ग्रंथ परंपरा से प्रसिद्ध है––'रुक्मिणीमंगल' और 'छप्पय-नीति'। एक तीसरा ग्रंथ 'कवित्त-संग्रह' भी खोज में मिला है। इनका वह प्रसिद्ध छप्पय नीचे दिया जाता है जिसपर, कहते है कि, अकबर ने गोवध बंद कराया था––

अरिहु दंत तिनु धरै, ताहि नहिं नहिं मारि सकत कोइ।
हम संतत तिनु चरहिं, वचन उच्चरहिं दीन होइ॥
अमृत-पय नित स्रवहिं, बच्छ महि थंभन जावहिं।
हिंदुहि मधुर न देहिं, कटुक तुरकहि न पियावहिं॥
कह कवि नरहरि अकबर सुनौ बिनवति नउ जोरे करन।
अपराध कौन मोहिं मारियत, मुएहु चाम सेवइ चरन॥