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हिंदी-साहित्य का इतिहास

( भ्रमरगीत से )
कहन स्याम-संदेस एक मैं तुम पै आयो । कहन समय संकेत कहूँ अवसर नहिं पायो ॥
सोचत ही मन में रह्यो, कब पाऊँ इक ठाउँ । कहि सँदेस नँदलाल को, बहुरी मधुपुरी जाउँ ॥

सुनौ ब्रजनागरी ।


जौ उनके गुन होय, वेद क्यों नैति बखानै । गिरगुन सगुने आतमा-रुचि ऊपर सुख सानै ॥
वेद पुराननि खोजि कै पायो कतहुँ न एक । गुन ही के गुन होहि तुम, कहौ अकासहि टेक ॥

सुनौ ब्रजनागरी ।


जौ उनके गुन नाहिं और गुन भए कहाँ ते । बीज बिना तरु जमै मोहिं तुम कहौ कहाँ ते ॥
वा गुन की परछाँह री माया दरपन बीच । गुन तें गुन न्यारे भए, अमल वारि जल कीच ॥

सखा सुनु स्याम के ।

( ३ ) कृष्णदास---ये भी वल्लभाचार्यजी के शिष्य और अष्टछाप में थे । यद्यपि ये शूद्र थे पर आचार्यजी के बड़े कृपापात्र थे और मंदिर के प्रधान मुखिया हो गए थे। "चौरासी वैष्णवो की वार्ता" में इनका कुछ वृत्त दिया हुआ है। एक बार गोसाईं विट्ठलनाथ जी से किसी बात पर अप्रसन्न होकर इन्होंने उनकी ड्योढी बंद कर दी। इस पर गोसाई विठ्ठलनाथजी के कृपापात्र महाराज बीरबल ने इन्हें कैद कर लिया। पीछे गोसाईं जी इस बात से बड़े दुखी हुए और इनको कारागार से मुक्त कराके प्रधान के पद पर फिर ज्यों का त्यों प्रतिष्ठित कर दिया। इन्होंने भी और सब कृष्णभक्तों के समान राधा-कृष्ण के प्रेम को लेकर श्रृंगार-रस के ही पद गाए है । जुगलमान-चरित्र नामक इनका एक छोटा सा ग्रंथ मिलता है । इसके अतिरिक्त इनके बनाए दो ग्रंथ और कहे जाते हैं--भ्रमरगीत और प्रेमतत्त्व-निरूपण । फुटकल पदों के संग्रह इधर उधर मिलते हैं। सूरदास और नंददास के सामने इनकी कविता साधारण कोटि की हैं । इनके कुछ पद नीचे दिए जाते हैं---

तरनि-तनया-तट आवत है प्रात समय,

कंदुक खेलत देख्यो आनंद को कँदवा ॥

नूपुर पद कुनित, पीतांबर कुटि बाँधे,

लाल उपरना, सिर मोरन के चँदवा ॥

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