इसी प्रकार बालकों के क्षोभ के ये वचन देखिए---
खेलत में को काको गोसैयां ?
जाति पाँति हम तें कछु नाहिं, न बसत तुम्हारी छैयां ।
अति अधिकार जनावत यातें, अधिक तुम्हारे हैं कछु गैयाँ ।।
वात्सल्य के समान ही श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का इतना प्रचुर विस्तार और किसी कवि में नहीं । गोकुल में जब तक श्रीकृष्ण रहे तब तक का उनका सारा जीवन ही संयोग-पक्ष है। दानलीला, माखनलीला, चीरहरण-लोला, रासलीला आदि न जाने कितनी लीलाओं पर सहस्र पद भरे पड़े हैं। राधाकृष्ण के प्रेम के प्रादुर्भाव की कैसी स्वाभाविक परिस्थितियों का चित्रण हुआ है यही देखिए-
( क ) करि ल्यो न्यारी, हरि आपनि गैयाँ ।
नहिं न बसात लाल कछु तुमसों सबै ग्वाल इक ठैंया ।
( ख ) धेनु दुहत अति ही रति बाढी ।
एक धार दोहनि पहुँचावत, एक धार जहं प्यारी ठाढी ।।
मोहन कर तें धार चलति पय मोहनि-मुख अति ही छबि बाढ़ी ।
श्रृगार के अंतर्गत भावपक्ष और विभावपक्ष दोनों के अत्यंत विस्तृत और अनूठे वर्णन इस सागर के भीतर लहरे मार रहे हैं । राधाकृष्ण के रूप-वर्णन में ही सैकड़ो पद कहे गए है जिनमे उपमा, रूपक और उत्प्रेक्षा आदि की प्रचुरता है । आँख पर ही न जाने कितनी उक्तियाँ हैं; जैसे-
देखि री ! हरि के चंचल नैन ।
खंजन मीन मृगज चपलाई, नहिं पटतर एक सैन ॥
राजिवदल, इंदीवर, शतदल, कमल कुशेशय जाति ।
निसि मुद्रित-प्रातहि वै बिगसत, ये बिगने दिन राति ॥
अरुन असित सित झलक पलक प्रति, को बरनै उपमाय ।
मानो सरस्वति गंग जमुन मिलि आगम कीन्हों आय ॥
नेत्रों के पति उपालभ भी कही-कही बड़े मनोहर है---