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हिंदी-साहित्य का इतिहास

नवलख तारा चलै मंडल, चलै ससहर भान। दास धू कौं अटल पदवी राम को दीवान॥
निगम जाकी, साखि बोलैं कथैं सत्त सुजान। जन कबीर तेरी सरनि आयौ, राखि लेहु भगवान॥

(कबीर ग्रंथावली, पृ० १९०)


है हरि-भजन को परमान। नीच पावै-ऊँच पदवी, बाजते नीसान।
भजन को परताप ऐसो जल तरै पाषान। अजामिल अरु भील गनिका चढे जात विमान।
चलत तारे सकल, मंडल, चलत ससि अरु भान। भक्त ध्रुव को अटल पदवी राम को दीवान।
निगम जाको सुजस गावत, सुनत संत सुजान। सूर हरि की सरन आयौ, राखि ले भगवान॥

(सूरसागर, पृ० १९, वेंकटेश्वर)

कबीर की सबसे प्राचीन प्रति में भी यह पद मिलता है, इससे नहीं कहा जा सकता कि सूर की रचनाओं के भीतर यह कैसे पहुँच गया।

राधाकृष्ण की प्रेमलीला के गीत सूर के पहले से चले आते थे, यह तो कहा ही जा चुका है। बैजू बावरा एक प्रसिद्ध गवैया हो गया है जिसकी ख्याति तानसेन के पहले देश में फैली हुई थी। उसका एक पद देखिए––

मुरली बजाय रिझाय लई मुख मोहन तें।
गोपी रीझि रही रसतानन सों सुधबुध, सब बिसराई।
धुनि सुनि मन मोहे, मगन भई देखत हरि-आनन।
जीव जंतु पसु पंछी सुर नर मुनि मोहे, हरे सब के प्रानन।
बैजू बनवारी बंसी अधर धरि वृंदावन-चंद बस किए सुनते ही कानन॥

जिस प्रकार रामचरित गान करने वाले भक्त कवियों में गोस्वामी तुलसीदासजी का स्थान सर्वश्रेष्ठ है उसी प्रकार कृष्णचरित गाने वाले भक्त कवियों में महात्मा सूरदासजी का। वास्तव में ये हिंदी काव्य-गगन के सूर्य और चंद्र हैं। जो तन्मयता इन दोनों भक्तशिरोमणि कवियों की वाणी में पाई जाती है वह अन्य कवियों में कहाँ? हिंदी-काव्य इन्हीं के प्रभाव से अमर हुआ; इन्हीं की सरसता से उसका स्रोत सूखने न पाया। सूर की स्तुति में, एक संस्कृत श्लोक के भाव को लेकर यह दोहा कहा गया है––

उत्तम पद कवि गंग के, कविता को बलबीर। केशव अर्थ गँभीर को, सूर तीन गुन धीर॥