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हिंदी-साहित्य का इतिहास

प्रकार की क्रीड़ाएँ करते रहते है। गोलोक इसी 'व्यापी बैकुंठ' का एक खंड है। जिसमे नित्य रूप में यमुना, वृंदावन, निकुंज इत्यादि सब कुछ है। भगवान् की इस 'नित्यलीला-सृष्टि' में प्रवेश करना ही जीव की सबसे उत्तम गति है।

शंकर ने निगुण को ही ब्रह्म का परमार्थिक या असली रूप कहा था और सगुण को व्यावहारिक या मायिक। वल्लभाचार्य ने बात उलटकर सगुण रूप को ही असली पारमार्थिक रूप बताया और निगुण को उसका अंशतः तिरोहित रूप कहा। भक्ति की साधना के लिये वल्लभ ने उसके 'श्रद्धा' के अवयव को छोड़कर जो महत्त्व की भावना में मग्न करता है, केवल 'प्रेम' लिया। प्रेम-लक्षणा भक्ति ही उन्होंने ग्रहण की। 'चौरासी वैष्णवो की वार्त्ता' में सूरदास की एक वार्त्ता के अंतर्गत प्रेम को ही मुख्य और श्रद्धा या पूज्य बुद्धि को आनुषांगिक या सहायक कहा है––

"श्री आचार्य जी, महाप्रभुन के मार्ग को कहा स्वरूप है? माहात्म्य-ज्ञान-पूर्वक सुदृढ़ स्नेह की तो परम काष्ठा है। स्नेह आगे भगवान् को रहत नाही ताते भगवान बेर बेर माहात्म्य जनावत हैॱॱॱॱॱॱ ॱॱॱ ॱॱॱॱॱॱॱॱॱइन ब्रजभक्तन को स्नेह परमकाष्ठापन्न है। ताहि समय तो माहात्म्य रहे, पीछे विस्मृत होय जाये।"

प्रेम साधना में वल्लभ ने लोक-मर्यादा और वेदमर्यादा दोनों का त्याग विधेय ठहराया। इस प्रेमलक्षणा भक्ति की ओर जीव की प्रवृत्ति तभी होती है। जब भगवान् का अनुग्रह होता है जिसे 'पोषण' या पुष्टि कहते है। इसी से बल्लभाचार्यजी ने अपने मार्ग का नाम 'पुष्टि मार्ग' रखा है।

उन्होंने जीव तीन प्रकार के माने है––(१) पुष्टि जीव, जो भगवान् के अनुग्रह का ही भरोसा रखते हैं और 'नित्यलीला' में प्रवेश पाते है; (२) मर्यादा जीव, जो वेद की विधियों का अनुसरण करते है और स्वर्ग आदि लोक प्राप्त करते हैं और (३) प्रवाह जीव, जो संसार के प्रवाह में पड़े सांसारिक सुखों की प्राप्ति में ही लगे रहते है।

'कृष्णाश्रय' नामक अपने एक 'प्रकरण ग्रंथ' में वल्लभाचार्य ने अपने समय की अत्यंत विपरीत दशा का वर्णन किया है, जिसमें उन्हें वेदमार्ग या मर्यादा-मार्ग का अनुसरण अत्यंत कठिन दिखाई पड़ा है। देश में मुसलमानी