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हिंदी-साहित्य का इतिहास

स्कंध के आरंभ में सूरदास ने श्रीकृष्ण के दर्शन के लिये अपने को ढाढी के रूप से नंद के द्वार पर पहुँचाया है––

नंद जु! मेरे मन आनंद भयो, हौं गोवर्द्धन तें आयो।
तुम्हरे पुत्र भयो मैं सुनि कै अति आतुर उठि धायो॥
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जब तुम मदनमोहन करि टेरौ, यह सुनि कै घर जाउँ।
हौं तौ तेरे घर को ढाढी, सूरदास मेरो नाउँ॥

सब का सांराश यह कि तुलसीदास का जन्मस्थान राजापुर जो प्रसिद्ध चला आता है, वही ठीक है।

एक बात की ओर और ध्यान जाता है। तुलसीदासजी रामानंद-संप्रदाय की बैरागी परंपरा में नहीं जान पड़ते। उक्त संप्रदाय के अतंर्गत जितनी शिष्य परपराएँ मानी जाती है उनमें तुलसीदासजी का नाम कही नहीं है। रामानंद परंपरा से संमिलित करने के लिये उन्हे नरहरिदास का शिष्य बताकर जो परंपरा मिलाई गई हैं, वह कल्पित प्रतीत होती हैं। वे रामोपासक-वैष्णव अवश्य थे, पर स्मार्त्त वैष्णव थे।

गोस्वामीजी के प्रादुर्भाव को हिंदी-काव्य के क्षेत्र में एक चमत्कार समझना चाहिए। हिंदी-काव्य की शक्ति का पूर्ण प्रसार इनकी रचनाओं में हीं पहले पहल दिखाई पडा। वीरगाथा-काल के कवि अपने संकुचित क्षेत्र में काव्य-भाषा के पुराने रूप को लेकर एक विशेष शैली की परंपरा निभाते आ रहे थे। चलती भाषा का संस्कार और समुन्नति उनके द्वारा नहीं हुई। भक्तिकाल में आकर भाषा के चलते रूप को समाश्रय मिलने लगा। कबीरदास ने चलती बोली में अपनी वाणी कही। पर वह बोली बेठिकाने की थी। उसका कोई नियत रूप न था। शौरसेनी अपभ्रंश या नागर अपभ्रंश का जो सामान्य रूप साहित्य के लिये स्वीकृत था उससे कबीर का लगाव न था। उन्होंने नाथपंथियो की 'सधुक्कडी भाषा' का व्यवहार किया जिसमे खड़ी बोली के बीच राजस्थानी और पंजाबी का मेल था। इसका कारण यह है कि मुसलमानों की बोली पंजाबी या खड़ी बोली हो गई थी और