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रामभक्ति-शाखा

ब्राह्मण होना तो दोनों चरितों में पाया जाता है, और सर्वमान्य है। "तुलसी परासर गोत दुबे पतिऔजा के" यह वाक्य भी प्रसिद्ध चला आता है और पंडित रामगुलाम ने भी इसका समर्थन किया है। उक्त प्रसिद्धि के अनुसार गोस्वामीजी के पिता का नाम आत्माराम दूबे और माता का नाम हुलसी था। माता के नाम के प्रमाण मे रहीम का यह दोहा कहा जाता है––

सुरतिय, नरतिय, नागतिय, सब चाहति अस होय।
गोद लिए हुलसी फिरै, तुलसी सी सुत होय॥

तुलसीदासजी ने कवितावली में कहा है कि "मातु पिता जग जाइ तज्यो विधिहू न लिख्यों कछु भाले भलाई।" इसी प्रकार विनयपत्रिका में भी ये वाक्य है––"जनक जननी तज्यो जनमि, करम बिनु बिधिहु सृज्यो अवडेरे" तथा "तनुजन्यो कुटिल कीट ज्यों, तज्यो मातु पिता हू"। इन वचनों के अनुसार यह जनश्रुति चल पड़ी कि गोस्वामीजी अभुक्तमूल में उत्पन्न हुए थे, इससे उनके माता पिता ने उन्हे त्याग दिया था। उक्त जनश्रुति के अनुसार गोसाई चरित्र में लिखा है कि गोस्वामीजी जब उत्पन्न हुए तब पाँच वर्ष के बालक के समान थे और उन्हें पूरे दाँत भी थे। वे रोए नहीं, केवल 'राम' शब्द उनके मुँह से सुनाई पड़ा। बालक को राक्षस समझ पिता ने उसकी उपेक्षा की। पर माता ने उसकी रक्षा के लिये उद्विग्न होकर उसे अपनी एक दासी मुनिया को पालने पोसने का दिया और वह उसे लेकर अपनी ससुराल चली गई। पाँच वर्ष पीछे जब मुनिया भी मर गई तब राजापुर में बालक के पिता के पास संवाद भेजा गया पर उन्होंने बालक लेना स्वीकार न किया। किसी प्रकार बालक का निर्वाह कुछ दिन हुआ। अंत में बाबा नरहरिदास ने उसे अपने पास रख लिया और शिक्षा-दीक्षा दी। इन्हीं गुरु से गोस्वामीजी रामकथा सुना करते थे। इन्हीं अपने गुरु बाबा नरहरिदास के साथ गोस्वामीजी काशी में आकर पंचगंगा घाट पर स्वामी रामानंदजी के स्थान पर रहने लगे। वहाँ पर एक परंम विद्वान् महात्मा शेषसनातनजी रहते थे जिन्होंने तुलसीदासजी को वेद, वेदांत, दर्शन, इतिहास-पुराण आदि में प्रवीण कर दिया। १५ वर्ष तक अध्ययन करके गोस्वामीजी, फिर अपनी जन्मभूमि राजापुर को लौटे; पर वहाँ इनके परिवार में कोई नहीं रह गया था और घर भी गिर गया था।