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हिंदी-साहित्य का इतिहास

'अष्टांग जोग तन त्यागियो द्वारकादास, जानै दुनी'

जब कोई शाखा चल पड़ती है तब आगे चलकर अपनी प्राचीनता सिद्ध करने के लिये वह बहुत सी कथाओ का प्रचार करती है। स्वामी रामानंदजी के बारह वर्ष तक योग-साधना करने की कथा इसी प्रकार की है जो बैरागियो की 'तपसी शाखा' में चली। किसी शाखा की प्राचीनता सिद्ध करने का प्रयत्न कथाओं की उद्भावना तक ही नहीं रह जाता। कुछ नए ग्रंथ भी संप्रदाय के मूल प्रवर्त्तक के नाम से प्रसिद्ध किए जाते हैं। स्वामी रामानंदजी के नाम से चलाए हुए ऐसे दो रद्दी ग्रंथ हमारे पास हैं––एक का नाम है योग-चिंतामणि; दूसरे का रामरक्षा-स्तोत्र। दोनों के कुछ नमूने देखिए––

(१)

विकट कटक रे भाई। कायां चढा न जाई।
जहँ नाद बिंदु का हाथी। सतगुर ले चले साथी।
जहाँ है अष्टदल कमल फूला। हसा सरोवर में भूला।
शब्द तो हिरदय बसे, शब्द नयनों बसे,
शब्द की महिमा चार बेद गाई।
कहै गुरु रामानंद जी, सतगुर दया करि मिलिया,
सत्य का शब्द सुनु रे भाई।
सुरत-नगर करै सयल। जिसमें है आत्मा का महल॥

––योगचिंतामणि से।

(२)

संध्या तारिणी सर्वदुःख-विदारिणी।

संध्या उच्चरै विघ्न टरै। पिंड प्राण कै रक्षा श्रीनाथ निरंजन करै। नाद नाद सुषुम्ना के साल साज्या। चाचरी, भूचरी, खेचरी, अगोचरी, उनमनी पाँच मुद्रा सधत साधुराजा।

डरे डूंगरे जले और थेले बाटे घाटे औघट निरंजन निराकार रक्षा करे। बाध बाधिनी का करो मुख काला। चौंसठ जोगिनी मारि कुटका किया, अखिल ब्रह्मांड तिहुँलोक में दुहाई फिरिबा करै। दास रामानंद ब्रहा चीन्हा, सोइ निज तत्त्व ब्रह्मज्ञानी।

––रामरक्षा-स्तोत्र से।