पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/९८

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चतुर्थ व्याख्यान चन्द अधिक नफल हैं। रासोकार ने अन्तर्वृत्तियों के द्वन्द्व दिखाने में अद्भुत कौशल का परिचय दिया है। रामचरित मानस की सीता को भी गौरी-पूजन के प्रसंग में रामचन्द्रजी का अचानक दर्शन हो गया, पर वहाँ पूर्वराग उस सीमा तक नहीं पहुंचा था जिस सीमा तक शशिवत्ता और पृथ्वीराज का पूर्वराग अवश्य ही साक्षात् दर्शन अब भी बाकी था!- पहुँच चुका था। सखी ने शशिनता को दिखाया-वह देखो, जिसे चाहती हो वह श्रा गया ! ग्रॉखें चार हुई और कर्ने प्रयंत कटाछ सुरंग विरानही कछु पुच्छन को जांहि पे पुच्छय लाजहीं नैन सैन में बात स्रवनन सो कह काम किंधौ प्रथिराज मेद करि ना लह। ४२-२१० शशिव्रता मंदिर की ओर बढ़ी। ५०० सखियों उसे घेरे थीं। कान्यकुब्जेश्वर की मेना डटी हुई थी। मंदिर में फिर पृथ्वीराज की प्रॉखों से आँखें मिली । सुकुमार-लज्जाभार भरिता शशिवता की वह शोमा देखने ही लायक थी, पृथ्वीराज ने उसकी बाँह पकड़ी मानों गजराज ने लहराकर आई हुई काचनलता को पकड लिया हो- चौहान हथ्य वाला गहिय सो ओपम कवि चंद कहि । मानो की लता कंचन लहरि मत्त वीर गजराज गहि || यह बिल्कुल अप्रत्याशित बात थी। शशिवता इसके लिये बिल्कुल तैयार नहीं थी। उसकी आँखों में आँसू आ गए । उधर सेनाएँ डटी हुई थीं। एक ही साय राजा पृथ्वीराज के हृदय में रौद्र, शशिवता के मन में करुण, वीरों के मन में सुमट-गतिजन्य उत्साह, सखियों के मन में हास, अरिदल के हृदय में बीभत्स और कमघम के हृदय में भयानक रस का संचार हुना- नृप भयो रुद्द, करुणा सुत्रिय, वीरभोग वर सुभट गति । संगियन सुहास, वीमच्छ रिन भय भयान कमज्ज दुति ।। रि युद्ध युद्ध युद्ध ! अन्त में शशिव्रता ने प्रस्ताव किया कि दिल्ली चलिए । शशिनता यहाँ अत्यन्त कोमल पतिपरायणा स्त्री के रूप में दिखाई पड़ती है । सब मिलाकर यह कया रासोकार की कवित्वशक्ति का परिचायक है। इसमे उसने प्रेम-कथानकों की अनेक काव्य-रूढ़ियों का प्रयोग किया है। उसे सफलता भी मिली है। संबोगिताका लयंवर विशुद्ध कवि-कल्पना है । ऐतिहासिक दृष्टि से इसकी प्रामाणिकता पर कई बार सन्देह प्रकट किया गया है। जयचंद की किसी पुत्री से पृथ्वीराज का विवाह हुआ था या नहीं, सन्दिग्ध ही है। कहा जाता है कि ऐतिहासिकता के लिए प्रमाण मानी जाने योग्य प्रशत्तियों में या मुसलमान ऐतिहासिकों के विवरणों में तो इसका कोई उल्लेख है ही नहीं। चौदहवीं पन्द्रहवीं शताब्दी के जैन प्रबन्धों में भी इसकी चर्चा नहीं है । पृथ्वीराजविजय अधूरा ही मिला है। उसके उपलब्ध अन्तिम हिस्से में चित्रशाला में पृथ्वीराज एक अप्सरा की मूर्ति देखकर प्रेमानुर होता है। यह पता नहीं चलता कि आगे क्या हुआ, पर कथा के मुकाव से अनुमान होता है कि किसी ऐसे ही प्रेम-विवाह की