पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/९७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
८६
हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

हिन्दी साहित्य का प्राविकात यह विरह वर्णन साधारणतः वाद्य वस्तु प्रधान है। विरह मे जिस प्रकार का हृदय- राग चित्रण होना चाहिए था वैसा इसमे नही है। अस्तु । जिस प्रकार नैषधचरित के नल की भो ति नटसुख से प्रिया के गुण सुनकर पृथ्वीराज व्याकुल हो उठा, उसी प्रकार एक हंस की भी कल्पना की गई है। यहाँ आकर मालूम हुश्रा कि सगाई जयचन्द्र के भतीजे वीरचन्द से होने जा रही थी। किसी गन्धर्व ने यह बात सुन ली और वह हस बनकर शशिवता के पास पहुँचा। नैषध के इंस की मॉति यह भी सोने का ही था। शशिव्रता के पूर्वजन्म मे चित्ररेखा नामक अप्सरा होने की बात हंस ने उसे बताई। अप्सरा का सुन्दरी कन्या के रूप में अवतार पृथ्वीराजरासो का प्रिय विषय है। संयोगिता भी अप्सरा का ही अवतार थी। 'पृथ्वीराजविजय' के अन्त में कहानी आई है कि पृथ्वीराज अपनी चित्रशाला मे अप्सरा का चित्र देखकर मुग्ध हुए थे। कथा का झुकाव जिस प्रकार का है उससे पता चलता है कि वह अप्सरा किसी-न-किसी रूप में पृथ्वीराज को मिली होगी। दुर्भाग्यवश वह काव्य आधा ही प्रास हुआ है और यह नहीं पता चला कि वह अप्सरा पृथ्वीराज को किस रूप मे मिली। पर जान पड़ता है कि अप्सरावाले विश्वास का पृथ्वीराज के वास्तविक जीवन से कोई सम्बन्ध है। जो हो, गंधर्व (हंस) शशिव्रता को पृथ्वीराज की ओर उन्मुख करता है। वीरचन्द तो अभी साल भर का बच्चा था। अप्सरावतार युवती शशिव्रता को उससे विमुख करने मे हंस का विशेष श्रम नहीं पड़ा। शशिव्रता के मन मे प्रेमाकुर उत्पन्न करके वह दिल्ली गया ! यही उचित था । यही स्वामाविक भी । पृथ्वीराज ने उसे पकडा । नल ने भी ऐसा ही किया था । प्रेम गाद होता है, पृथ्वीराज की ओर से भी और शशिव्रता की ओर से हंस ने भी शशिव्रता का रूप-गुण वर्णन किया, चित्ररेखा का अवतार होना बताया और एक नई बात यह बताई कि शशिवता ने गान सिखानेवाली अपनी शिक्षामित्री चन्द्रिका से पृथ्वीराज का गुण सुनकर आकृष्ट हुई है। पृथ्वीराज भी नट से सुनके आकृष्ट हुआ था, शशिनता भी गायिका के मुख से सुनकर आकृष्ट हुई थी- दोनों ओर गुण-श्रवण-अन्य आकर्षण है। यह भी भारतीय कथानक-रूढ़ि है, पर कहानी नैषधचरित के समानान्तर हो गई है । पृथ्वीराज के प्रेम का समानान्तर दूसरी घटना है शशिव्रता का भी शिष-पूजन । हंस संकेत करता है कि रुक्मिनी को जिस प्रकार श्रीकृष्ण ने हरा, उसी प्रकार तुम हो। कन्याहरण का यह 'अमिप्राय' भी बहुत पुराना है। रासो मे पद्मावती ने भी पृथ्वीराज को उसी प्रकार वरा था 'ज्यो रुकमिनी कन्हर वरिय ।' और संयोगिता को भी लगभग इसी पद्धति से हरा गया था। रासोकार को यह अभिप्राय अत्यन्त प्रिय है। ___ अब कहानी नल के श्रादर्श पर नहीं चलकर श्रीकम्त के आदर्श पर चलने लगी। परन्तु शशिव्रता के पिता ने ही पृथ्वीराज को लिखा कि शिवजी की पूजा के लिये शशिव्रता जायगी और वहीं मिलेगी। पुत्री की दृढ़ता और व्रत से पिता का हृदय पसीज गया था। मन्दिर में पूजा के बहाने आई हुई कन्या का हरण पुराना भारतीय 'अभिप्राय है, जो कथानक-रूढ़ि के रूप मे ही बाद के साहित्य में जम बैठा है। पद्मावत में भी यह 'अभिप्राय है। पर वहाँ पद्मावती अपने मन में अच्छी तरह जानती हुई जाती है कि वहॉ रतनसेन श्रानेवाला है। शशिवता को यह नहीं मालूम । जायसी की तुलना मे यहाँ