पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/९६

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चतुर्थ व्याख्यान देव अरु जप्षि नागिनि नरिय गरहि गर्व दिष्पत नयन इंछिनी अंखि लज्जा सहज कितक शक्ति कन्विय चयन । १४-१५९ सो, यह विवाह झगडों और लड़ाइयो के बावजूद सहज विवाह है। इसके पहले और बाद में पटापट दो विवाह और हुए हैं। पर उनमे कवि का मन रमा नहीं है। स्पष्ट ही लगता है कि वे मूल रासो के विवाह नहीं हैं। इछिनी का विवाह ही शायद मूल रासो का प्रथम विवाह है। बाकी दो विवाहो का वैशिष्ट्य दिखाने के लिये ही कवि ने इस सहज विवाह की पृष्ठभूमि तैयार की है। इस सहज विवाह की सहज शोभा का कवि ने बार-बार उल्लेख किया है- धन घुमि धुम्मर हेम । कवि कहो ओपम एम ।। मनों कमल सौरमकाजी प्रति प्रीतभमर विराज ।। कह कहौ अंग सुरंग रति भूलि देखि अनंग ।। लषि लच्छि पूर सहज। चित्त वृत्त मानों रज्ज ॥ सो सलप राजकुँचारि । नृप लही ब्रह्म सँवार ।। इन लच्छि इछनियरूप। कुल वधू लबिछन रूप ।। रतिरूप रमनिय रज्जिाछविसरस छुतितन सजि॥ रसि रसिंत रमहराज । तिहरमन हुअप्रथिराज ॥ अगले विवाह मे कवि ने जमके कथानक-रूदियों का सहारा लिया है। राजा का नट के मुख से यादवराज-कन्या शशिवता के रूप की प्रशसा सुनना और आसक होना, यह जानना कि उज्जैन के कामवज राना को सगाई भेजी गई है, पर कन्या उसे नहीं चाहती, कन्या-प्राप्ति के लिये शिव-यूजन और शिवजी का स्वप्न मे मनोरथ-सिद्धि के लिये वरदान-- ये पुरुष-राग की चिराचरित भारतीय कथानक-रूढियों हैं। कवि ने इन्हें नियुणता के साथ उपस्थित किया है। फिर पृथ्वीराज भिन्न-भिन्न ऋतुओं मे मन्मथ-पीड़ा से व्याकुल होता है- यहाँ भी वही बात है। कवि ने इस बहाने बडा ही सुन्दर ऋतु- वर्णन किया है- मोर सोर चहुं और घटा आसाढ बंधि नभ । बच दादुर भिंगुरन रटत चातिग रंजत सुम । नील बरन वसुमतिय पहिर आधेन अलतिय । चंद चधू सिल्वंद धरे वसुमत्तिसु रज्जिय। वरपंत बूंद धन मेघसर तब सुभौग जद्दव कुँअरि । नन हंस धीर धीरज सुतन इष फुट्टे मन मत्थ करि । २५-६५ और फिर, धन घटा बंधि तम मेघ छाय । दानिमिय दमकि जामिनिय जाय । बोलंत मोर गिरवर सुहाय । चातिम्ग रटत चिहुँ और छाइ । इत्यादि