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हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

हिन्दी-साहित्य का श्रादिकाल कौतूहल कवि की 'लीलावती' नामक कथा प्राप्त हुई है जो हू-ब-हू इन लक्षणों से मिलती है। भामह ने जो इशारा किया था कि कथा में उच्छवास श्रादि के रूप में अध्यायों का विभाजन नहीं होता, वह इस कथा में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। कथा का कहनेवाला यहाँ नायक नहीं है। यह कवि और कवि-पत्नी की बातचीत के रूप में कही गई है। इस प्रकार दो व्यक्तियों की बातचीत के रूप मे कथा कहने की प्रथा इस देश में बहुत पुरानी है। ____ भामह ने जब कथा और आख्यायिका में यह भेद किया था कि एक तो दूसरों की बातचीत के रूप में कही जानी चाहिए और दूसरी स्वयं नायक के द्वारा, तो उन्होंने संभवतः यह बताना चाहा था कि कथा में कल्पना की गुंजायश अधिक होती है और श्राख्यायिका मे कम । एक को कहानी काल्पनिक होती है और दूसरी की ऐतिहासिक । परबत्ती आलंकारिकों ने कादम्बरी को 'कथा' कहा है और हर्षचरित को 'आख्यायिका' । काल्पनिक कहानी में संभावना पर बल दिया जाता है और ऐतिहासिक कहानी में नायक के वास्तविक जीवन मे घटित तथ्य की ओर । शुरू-शुरू में काल्पनिक और ऐतिहासिक कहानियों के इस भेद को लक्ष्य किया गया होगा । भामह की कथा से ऐसा अनुमान होता है। ऐसा लगता है कि वे कहना चाहते हैं कि कथा प्रधानरूप में ऐसी कहानी है जिसमें कहानीपन अधिक है। कथावस्तु की संघटना, पात्रों के भावों के उतार-चढ़ाव, कथावस्तु और चरित्र-चित्रण को एक दूसरे को गति देते रहने का गुण और, सबसे बढ़कर, रस का उत्तम परिपाक इसका मुख्य लक्ष्य था । आख्यायिका में नायक को स्वयं देखी-सुनी घटनाओं की प्रचुरता के कारण कवि को कल्पना के द्वारा देखने का यथेच्छ अवकाश नहीं रह सकता। वह कथावस्तु कोपात्रों के भीतरी गुणों के साथ इस प्रकार गूंथ सकता कि वे एक दूसरे को धक्का मार-मार के उसके (कवि के) अभिलषित लक्ष्य तक ले जा सकें। बहुत-सी असंभव दीखनेवाली बातों का होना रस-परिपाक में बाधक होता है। पुरानी कथाओं में कथानक रूढ़ि के रूप में बहुत सी अनहोनी वाते श्रा गई हैं। कथा के लेखकों ने उनको संभव बनाने के लिए कुछ सभावनाओं का सहारा लिया था जो आगे चलकर कथानक-सम्बन्धी अभिप्रायों का कारण बन गई। इस विषय पर हम श्रागे विचार करेंगे। यहाँ प्रकृत यही है कि कल्पनामूलक कथानों का दो व्यक्तियों की बातचीत के रूप मे कहना कुछ अप्रत्यक्ष-सा होता है और कवि का उत्तरदायित्व कम हो जाता है। आख्यायिका मे यह सुविधा नहीं रहतीः परन्तु भामह के ऊपर किये हुए दण्डी के आक्षेपों को देखते हुए यह निश्चित रूप से समझा जा सकता है कि ऐतिहासिक और काल्पनिक कथाओं की इस भेद को बहुत ही शीघ्र भुला दिया गया। यह जो दो व्यक्तियों के बीच बातचीत के रूप में कथा कहने की पद्धति है, वह इस देश को बहुत पुरानी प्रथा है। महाभारत मे इसी प्रकार पूर्वकथा कहकर श्रोता-वक्ता की योजना की गई है। यद्यपि अादिकाव्य रामायण में श्रोता-वक्ता की योजना नहीं है तथापि पूर्वकथा उसमे भी है। लौकिक कथानों में यह प्रथा शुरू-शुरू में सम्भवतः इसलिये व्यवहृत हुई थी कि कथा में असम्भव समझी जाने योग्य वातों को पर-प्रत्यक्ष वताकर उसकी असभाव्यता की मात्रा कम कर दी जाए। हमने ऊपर देखा है कि वृहत्कथा में भी एक मनोरंजक कथान्तर या पूर्वकथा है; परन्तु वह ठीक प्रश्नोत्तर के रूप में नहीं है ।