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हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

हिन्दी साहित्य का आदिकाल मनोरंजक कहानी की ओर आपका ध्यान आकृष्ट करने जा रहे हैं, वह ऐसे ही उपहास की द्योतक है। 'हाल' की 'सत्तसई प्राकृत-कविताओं का अपूर्व संग्रह है। शताब्दियों से वह पण्डितों का कण्ठहार बनी हुई है। इसके कोई एक दर्जन रूप हमे परम्पराक्रम से प्राप्त हुए हैं। विशेषज्ञों ने सब रूपा के अध्ययन के बाद दिखाया है कि सात सौ में लगभग चार सौ गाथाएँ पुरानी हैं। बाकी परवर्ती काल मे प्रक्षिप्त हुई हैं। इस पुस्तक का मूल नाम 'गाथाकोश' था। एक गाथा के अनुसार, कवि-वत्सल हाल' ने एक करोड गाथाओं में से चुनकर इन सात सौ पद्यों का संग्रह किया था। एक मजेदार कहानी मे तो यह भी कहा गया है कि सरस्वती के वरदान से 'हाल' के राज्य का प्रत्येक स्त्री-पुरुष एक दिन के लिये कवि हो गया था और सबने अपनी कविताएँ 'हाल' को दी थीं। उन्हीं में से चुनी हुई कविताओं का संग्रह 'सत्तसई है। इसमें तो कोई शक नहीं कि हाल' प्राकृत-साहित्य के पृष्ठयोपक थे। राजशेखर ने 'काव्यमीमासा' में वो इस अनुश्रुति का भी उल्लेख किया है कि सातवाहन ने अपने अन्तःपुर मे केवल प्राकृत बोलने का ही नियम बना दिया था । यह सातवाहन और हाल एक ही व्यक्ति होंगे। ऐसा प्राकृत-प्रेमी राजा में प्राकृत निबद्ध प्रेम- गाथाओ का नायक हो, यह बिल्कुल स्वाभाविक ही है और शायद यह भी स्वाभाविक ही है कि ऐसे प्राकृत-प्रेमी राजा को सस्कृत से अनभिज्ञ बताकर उपहास का पात्र बनाया जाय । सो, एक बार यही राजा सातवाहन जलक्रीड़ा करते समय संस्कृत की अनभिज्ञता के कारण लज्जित हुए और यह प्रतिज्ञा कर बैठे कि जबतक धारावाहिक रूप से संस्कृत लिखने-बोलने नहीं लगेगे तबतक बाहर मुंह नहीं दिखायेगे। राज-काज बन्द हो गया, गुणाढ्य पण्डित बुलाये गये। उन्होंने ६ वर्ष में संस्कृत सिखा देने की प्रतिज्ञा की, पर एक दूसरे पण्डित ने ६ महीने में ही इस असाध्य-साधन का प्रत ले लिया। गुणाढ्य के मत से यह असभव वात थी। उन्होंने प्रतिज्ञा की कि यदि कोई ६ महीने में संस्कृत सिखा देगा तो वह संस्कृत में लिखना-बोलना ही बन्द कर देंगे। ६ महीने बाद राजा तो सचमुच ही धारावाहिक रूप से सस्कृत बोलने लगे; पर गुणाढ्य पडित को अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार मौन होकर पिशाचों की बस्ती में जाना पड़ा। उनके दो शिष्य उनके साथ हो लिए। वहीं किसी गधर्व से जो शापवश पिशाच हो गया था, कहानी सुनकर गुणाढ्य पण्डित ने इस विशाल ग्रंथ को पैशाची भाषा में लिखा था। कागज का काम सूखे चमड़ों से लिया गया और स्याही का काम पशुओं के रक्त से। पिशाचों की बस्ती में और मिल ही क्या सकता था। कथा जब पूरी हुई तो गुणाढ्य पण्डित शिष्यो सहित फिर राजधानी लौट श्राये। स्वयं तो वे नगर के उपकण्ठ मे ही ठहर गये, पर ग्रन्थ को शिष्यों के हाथ राजा के पास भिजवा दिया। राजा ने सब जान-सुनकर कहा कि भला जिस पुस्तक की भाषा पैशाची हो, स्याही रक्त हो, लेखक मौन और मत्त हो, उसकी कथावस्तु में विचारने योग्य हो ही क्या सकता है- पैशाची बाग मषी रक्तं मौनोन्मत्तश्च लेखकः। इति राजाब्रवीत् का वा वस्तुसारविचारणा ॥ (बृहत्कथामंजरी ११८७)