पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/६६

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तृतीय न्याख्यान ५५ बाद मे लोगो ने और मी तरह-तरह की ऐतिहासिक गलतियों दिखाई। रासो के प्रति एक प्रकार का साहित्यिक 'मोह' रखनेवाले विद्वानों को इस बात से कण्ट हुअा। उन्होंने नाना युक्तियों से उसे ऐतिहासिक सिद्ध करने का प्रयत्न शुरू किया। एक आनंद संवत् की वेबुनियादी कल्पना को सहायक बनाया गया। पर रासो वर्तमान रूप मे इतनी इतिहास- विरुद्ध घटनाओं का भौजाल है कि उसे किसी भी युक्ति से इतिहास के अनुकूल नहीं सिद्ध किया जा सकता। अब यह निश्चित रूप से विश्वास किया जाने लगा है कि मूल रासों में बहुत अधिक प्रक्षेप होता रहा है और अब यह निर्णय कर सकना कठिन है कि मूल रासो कैसा था! सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक विद्वान् भ० म० पं० गौरीशंकर श्रोमाजी ने निश्चित प्रमाणों के आधार पर सिद्ध कर दिया है कि रासो का वर्तमान रूप स० १५१७ और १७३२ के बीच किसी समय मे प्राप्त हुश्रा था, अर्थात् वर्तमान रासो का अन्तिम रूप से सकलन- खपादन सत्रहवीं शताब्दी के आसपास हुधा है। इधर जन्य से मुनि-जिनविजयजी ने 'पुरातनप्रबध-सग्रह' मे प्राप्त चार छाययों की ओर पडितों का ध्यान आकृष्ट किया है तब से मूल रासो में प्रक्षेपवाले सिद्धान्त की पुष्टि हो गई है। ये छप्पय प्रायः अपभ्रंश मे है। वर्तमान रासो मे ये विकृत रूप में प्राप्त होते हैं। हम श्रागेवाले व्याख्यान मे इनको उद्धृत करने जा रहे हैं। यहाँ केवल इतना कहना उचित जान पड़ता है कि इन छप्पयो से पृथ्वीराज विजय का भी विरोध नहीं है और रामो मे तो ये मिलते ही हैं। इनमे पृथ्वीराज-विजयवाले प्रसिद्ध मत्री 'कदम्बवास' (कईमास) की पृथ्वीराज द्वारा की हुई हत्या की चर्चा है। इसलिए इनमे अनैतिहासिक तत्त्व नहीं है। भाषा इनकी अपभ्र श है और इस तथ्य से यह अनुमान पुष्ट होता है कि रासो मे भी कुछ उमी प्रकार के अपभ्र श मे लिखा गया था जिस प्रकार के अपभ्र श मे ग्यारहवीं शताब्दीवाला दमोहवाला शिलालेख (जिसकी चर्चा प्रथम व्याख्यान में की गई है) लिखा गया था। अब यह मान लेने में किसी को आपत्ति नहीं है कि रासो एकदम जाली पुस्तक नहीं है। उसमे बहुत अधिक प्रक्षेप होने से उसका रूप विकृत जरूर हो गया है, पर इस विशाल ग्रन्थ मे कुछ सार भी अवश्य है। इसका मूल रूप निश्चय ही साहित्य और भाषा के अध्ययन की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होगा। परन्तु जबतक कोई पुरानी - हस्तलिखित प्रति नहीं मिल जाती तबतक उसके विषय में कुछ कहना कठिन ही होगा। फिर भी मेरा अनुमान है कि उस युग की काव्य-प्रवृत्रियों और काव्यरूपों के अध्ययन से हम रासो के मूलरूप का संधान पा सकते हैं। परिश्रम करके यदि हम उस रूप का कुछ श्राभास पा जाये तो उसकी साहित्यिक महिमा और काव्य-सौन्दर्य की किंचित् झलक पा सकेगे; परन्तु भाषा का प्रश्न फिर भी विवादास्पद रह जायगा। पुरातनप्रबध वाली परम्परा को विश्वास-योग्य माने तो वह भाषा अपभ्र श ही थी जो उस युग की प्रवृत्तियों को देखते हुए ठीक ही मालूम देती है। परन्तु उसे मानने में थोड़ी हिचकिचाहट हो भी सकती है । जैन-ग्रंथकार अपभ्र श भाषा के विषय में जरूरत से कहीं ज्यादा सावधान रहे हैं। जिस प्रकार तुलसीदास की रामायणवाली भाषा को उत्साही ब्राझण-पडितों के हाथ शुद्ध होकर रस्कृतानुयायी बनना पड़ा है, उसी प्रकार संभव है कि चद की देश्य मिश्रित अपभ्रंश