पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/६४

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द्वितीय न्याख्यान 'अव' जहाँ था, वहाँ 'श्री' बन गया-सैन (मदन-मयन-मैन), पौन (पवन-पौन), नैन (नयन-नैन)। इसी प्रकार तुम का वाचक 'पह' था जो घिसते-घिसते 'क' रह गया है। जायसी ने इसका प्रयोग बहुत किया है । ('मागु मागुपै कहहु पिय, कबहुँ न लेहु न देहु)। विद्वानों ने इसे 'अपि' वाले 'पै के साथ जोड देने प्रयत्न किया है। (ख) दूसरा कौशल संप्रसारण का है। ह्रस्व को दीर्घ करने के उदाहरण पहले ही दिये गये हैं और यह भी दिखाया गया है कि किस प्रकार कई स्वार्थक प्रत्ययों के योग से शब्दों को लंबा बनाया गया है। इनके अतिरिक्त भी कई कौशल हैं। इस प्रकार प्रायः उन सभी प्रवृत्तियों का बीजारोपन इस काल की प्रामाणिक रचनाओं में मिल जाता है जो आगे चलकर भाषाकाव्य मे व्यापक रूप से मिलने लगती हैं।