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हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

१६ हिन्दी-साहित्य का आदिकान तथ्यों की परवा न करके उन दिनों की प्रचलित प्रथा के अनुसार संभावनाओं पर जोर दिया है । बीसलदेव कवियों का आश्रय-दाता था और उसके दरबार मे मापा-काव्य की योड़ी प्रतिष्ठा भी थी। नरपतिनाल्ह के बारे मे तो,जैसा कि हम भागे चल कर देखेंगे, यह संदेह ही है कि वह कब का कवि है; पर अनुभुतियाँ सिद्ध करती हैं कि बीसलदेव के भापा-कवियो का मान था । वह स्वयं बड़ा प्रतापी राजा था। काशी-कान्यकुब्ज के राजाओं की भॉति यह वंश बाहर से नहीं आया था और साधारण जनता की भाषा की उपेक्षा नहीं करता था। दिल्ली के लौहस्तंभ पर उसने गर्वपूर्वक घोषणा की थी कि मैने विन्ध्याचल से हिमालय तक की सभी भूमि को म्लेच्छ-विहीन करके यथार्थ श्रार्यावर्त बना दिया है। अपने वशजों को पुकारकर वह कहता है कि मैंने तो हिमालय और विन्ध्याचल के मध्यवर्ती देश को करद बना लिया है, परन्तु बाकी पृथ्वी को जीतने मे तुमलोगों का मन उद्योग-शून्य न हो, इस बात का ध्यान रहे ।' बीसलदेव नाम ही अएश नाम है। 'प्रबन्धचिन्तामणि' में एक मजेदार कहानी है, जिसमे बताया गया है कि बीसलदेव ने अपना नाम बदल कर विग्रहराज क्यों रखा १ बीसलदेव का एक सान्धिविग्रहिक 'कुमारपाल' की सभा मे पाया । उसने 'बीसल' को संस्कृत विश्वल' [विश्व को (जीत) लेनेवाला] से व्युत्पन्न बताया। कुमारपाल के मंत्री कपर्दी ने 'विश्वल' (वि-पक्षी, श्वल=भागनेवाला) का अर्थ किया-चिड़ियों की तरह भागनेवाला। यह सुनकर बीसलदेव ने अपना नाम बदल कर विग्रहराज रखा। पर कपर्दी ने इसका भी वेढगा अर्थ सिद्ध कर दिया। उसने बताया कि इस शब्द का अर्थ हुआ शिव और ब्रह्मा की नाक काटनेवाला (वि++हर+श्रज)! तब बीसलदेव ने अपना नाम 'कविवाधव' रखा। यह कहानी तो परवर्ती काल का विनोद है; किन्तु इससे एक बात सिद्ध होती है कि बीसलदेव अपनेको 'कविवायव' कहता था और उसका यह कहना ठोक था ! पुरातनप्रबन्ध मे उसकी रानी नागल देवी को सगीतकला मे अत्यन्त निपुण बताया गया है। राजा बीसलदेव स्वयं सगीत से एकदम अनमिश था। रानी ने उसे संगीत विद्या सिखायी थी। जैन-प्रवन्धो से बीसलदेव के समय की कुछ देशी मापा की रचनायो का मी परिचय मिल जाता था। बीसलदेव के राज्य मे जगडू साहू (वसाह जगड्डुक) बड़े प्रसिद्ध दानी थे। इन्होंने १ आविज्यादाहिमा।विरचितविजयस्तीर्थयात्राप्रसङ्गा दुग्रीवेषु प्रहां नृपतिषु विनमल्कन्धरेषु प्रसन्न । पार्यावर्त यथार्थ पुनरपि कृतवान् ग्लेविच्छेदनामि--- देवः शाकम्मरीन्द्रो जगति विजयते वीसलः शोथिपासः ।। ब्रूते सम्प्रति चाहमानसितको शाकम्मरीभूपतिः श्रीमद्विग्रहराज एष विजयी सन्तानजानात्मनान् । अस्माभिः करदं व्यधायि हिमवद्विन्ध्यान्तरालं मुवः शेषस्वीकरणाय मास्तु मत्रतामुयोगशून्यं मनः ।। -इ. ए. जि० १९, पृ०२१८ ।