पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/३४

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प्रथम व्याख्यान 'चरित' तत्सम शब्द है। इसका पुराना तद्भव रूप 'चरिउ' बहुत काल से प्रसिद्ध था। चोलचाल की भाषा मे नये सिरे से 'चरित' बोला जाने लगा था और पद्य लिखते समय भी कवि लोग इसका व्यवहार कर देते थे। इसी प्रकार 'दक्षिण', 'समग्र', 'सुख', 'ग्राम' आदि शब्द बोलचाल की भाषा से सरककर पद्य में आ जाते थे। बारहवीं शताब्दी मे किसी विश्वामित्र गोत्रीय गुहिलवंशी विजयपाल ने 'काई नामक वीर को हराया था। उसके लड्के का नाम भुवनपाल था, नाही का हषराज । इस इषराज के भुजदंड ने कालंजर, बाहल और गुर्जर तथा दक्षिण के देशों को जीता था। वह संगरभंगर, अर्थात् युद्ध को तहस-नहस करनेवाला था। उसके रणरमस के सामने कोई टिक नहीं सकता था। उसने महागढ को जीता, पौरजनों का रंजन किया, शत्रुओं को जीता, चित्तौड़ से जूझा, दिल्लीदल को जीता और इस प्रकार हर्षराज का पुत्र सबका प्रशंसा पात्र बना। शक्तिशाली गुर्जरों को खदेड दिया, गोदहों को मार भगाया। इस प्रकार अपने पौरुप के कारण विजयसिंह ने बडी कीर्ति पाई । वह भुमुक देव का भक्त था। उन्हीं के पदों की प्रगति करके उसने सारी कीर्ति अर्जित की और दृढचित्त से संपूर्ण सुखों को भोगा| दमोह जिले मे प्राप्त उसका हिन्दी-लेख इस प्रकार है- विसमित्त गोत्त उत्तिम चरित विमल पवित्तो गाण । अरघड़ धड़णो संसिजय द्ववडो भवाण ॥ द्ववडो पटि परिठियां खत्तिय विज्जयपालु । जोणे काइउरणिविजिणिउ तहसुअभुवण पालु। कलचुरि गुजर ससहरह दक्षिण पइ सुख अंड । चुहरा अहरण विजिणण हसिर राम भुवदंड ।। संघरि मंगरि रणरहलु गउ हरिसरुन कि अंघ्र । हपइत पठियर सुहड सुमुहु न कोउ समघ्र । जेणे रंजिउ जग पउरिणउ ग्राम महागढ़ हेठि । विजयसीह सुर अठिअह अरियण निहित पेठि ।। जो चित्तोडहं जुझिअउ जिण ढिलीदल जित्तु । सो सु पसंसहि रमअकइ हरिसराअ तिथ सुत्तु । खेदिय गुजर गौदहइ की अघिनं मारि । विजय सीह कित संहलहु पौरिस वह संसारि ।। मुंभुक देवह पत्र पणधि पअडिअ किज समव्व। विजयसीह दिढ़ चित्तु करि प्रारंमिश्र सुख सव्व ॥ नागरी-प्रचारिणी पत्रिका-भाग ३, अंक ४ में प्रकाशित रा.व. हीरालाल जी के लेख से। यह शिलालेख उस युग की भाषागत प्रवृत्तियों को अविकृत रूप में उपस्थित करता है। यह स्पष्ट रूप से यताता है कि पद्य की भाषा अपभ्रंश ही थी; किन्तु बोलचाल की भाषा मे संस्कृत-तत्सम शब्द आने लगे थे और उनका प्रभाव पा की माur ur भी ne rur m