पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/२६

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प्रथम व्याख्यान १५ कर जौड़े नरपति कहड, मूसा वाहन तिलक संदूर। एक दंतउ मुख झलमलइ, जाणिक रोहणीउ तप्पइ सूर।। -वी० रा. नगर माहि गुड़ि झलहलइ सहु लोक जोवानी मिलइ । -६०० घर घर गूड़ि उछली हुवउ वधावउ नगरी धार । -~-वी० रा० खीरोदक टसरूसाड़ला, नित पहिरवां अंगि दीसइ भला । --१०० दीया खरोदक पइहरणइ माणिक मोती चौक पुरार । -वी० रा. शुक्लजी ने भी लिखा था कि "नाल्ह के 'वीसलदेव रासो' मे, जैसा कि होना चाहिए था, न तो उक्त धीरा राजा (वीसलदेव) की ऐतिहासिक चढ़ाइयों का वर्णन है, न उसके शौर्य-पराक्रम का। शृगार रस की दृष्टि से विवाह और रूठकर विदेश जाने का (प्रोषित- पतिका के वर्णन के लिए) मनमाना वर्णन है। अतः इस छोटी-सी पुस्तक को वीसलदेव ऐसे वीर का 'शसों कहना खटकता है। पर जब हम देखते हैं कि यह कोई काव्यग्रंथ नहीं है, केवल गाने के लिये रचा गया था तो बहुत-कुछ समाधान हो जाता है।" इस प्रकार शुक्लजी को यह ग्रंथ बहुत अधिक ग्रहणीय नहीं मालूम हुना था । पुराना होने का गौरव पाने के कारण ही यह उनकी विवेचना का विषय बन सका था। अब इसका यह गौरव भी छिन गया है। इसकी "भाषा की प्राचीनता पर विचार करने के पहले यह यात ध्यान में रखनी चाहिए कि गाने की चीज होने के कारण इसकी भाषा मे बहुत-कुछ फेर- फार होता आया है, पर लिखित रूप में सुरक्षित रहने के कारण इसका पुराना ढाँचा बहुत-कुछ बना हुआ है ।"- यह शुक्लजी का विचार है, पर अब उल्टी बात मालूम हुई है । भाषा में, प्रचलित चारगरीति के अनुसार, कुछ पुरानापन देने का प्रयत्न किया गया है। इसी प्रकार हम्मीर रासो को नोटिस-मात्र समझा जा सकता है। शिवसिंह-सरोज में चंद कवि के प्रसङ्ग मे कहा गया था कि “इन्हीं की (चन्द की) औलाद में शाङ्गधर कवि थे, जिन्होंने हम्मीर गयरा (रासो १) और हम्मीर-काव्य भाषा मे बनाया है" (शिवसिह-सरोज पृष्ठ ३५०)। संभवतः इसी आधार पर प्राचार्य शुक्ल ने इस काव्य के अस्तित्व के संबंध में अनुमान किया था। प्राकृतपैङ्गलम् उलटते-पलटते उन्हें कई पद्य छन्दों के उदाहरणों मे मिले, फिर तो उन्हें "पूरा निश्चय हो गया कि ये पच असली हम्मोर रासो के ही हैं। क्यों और कैसे यह निश्चय हुश्रा- इसका कोई कारण शुक्लजी ने नहीं बताया। तब से अब हिन्दी-साहित्य के इतिहाम-ग्रन्थों में इन छन्दों को निश्चित रूप से असली हम्मीर रासो के छन्द माना जाने लगा है। मजेदार बात यह है कि श्रीराहुल साकृत्यायन ने इन्हीं कविताओं को अपनी 'काव्यधारा मे अन्जल कवि-लिखित माना है। कुछ पद्यों मे स्पष्ट रूप से 'जज्जल भणई', अर्थात् 'जन्जल कहता है की भणिति है। उदाहरणार्थ-