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हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

हिन्दी-साहित्य का श्रादिकाल इसके बाद उनका स्वर्गवास हो गया। पिशेल अपभ्रश के पाणिनि थे। सुप्रसिद्ध विद्वान् मुनि जिनविजयजी ने इस पंडित की अपूर्व कृतियों को देखकर उल्लास के साथ कहा है कि यह महाविद्वान् 'पाणिनि-स्मृत प्रापिशल नामक वैयाकरण का पुनरवतार तो नहीं था! मुनिजी ने 'पउमसिरीचरिड' नामक अपभ्रंश-काव्य की प्रस्तावना मे अपभ्रंश-साहित्य के प्रकाश मे श्राने की मनोरंजक घटना का वृत्तान्त दिया है । सचमुच ही अपनंश की रचनाओं का पाया जाना हमारे देश के साहित्यिक इतिहास मे उल्लसित करनेवाली घटना है। बहुत दिनों तक पिशेल का यह मत दुहराया जाता रहा कि अपभ्रंश का साहित्य एकदम खो गया है। गुणे, बनर्जी शास्त्री आदि ने बहुत बाद तक भी इसी मत को दुहराया। गुलेरीजी को कुमारपालप्रतिबोध को देखने का अवसर मिल गया था, परन्तु विश्वास उनका यही था कि अपभ्रंश-भाषा का साहित्य प्रायः लुस हो चुका है। कुछ रचनाएँ तो उनके जीवितकाल मे प्रकाशित भी हो चुकी थीं; पर उनकी ओर उनका ध्यान आकृष्ट नही हो सका था। सन् १९१३-१४ ई० में डॉ. हरमन याकोबी नामक जर्मन पडित इस देश में आए। जैनशास्त्रों के अध्ययन मे इन्हे यश प्राप्त हो चुका था। अहमदाबाद के जैन- भाएकार का निरीक्षण करते हुए इन्हें एक साधु के पास 'मविसयत्तकहा' नामक पुस्तक देखने को मिली । देखकर वे फड़क उठे। यह अपभ्रश का कान्य था । उन्होंने बड़ी कठिनता से उस पुस्तक की प्रतिलिपि कराई और उसका फोटो लिया। फिर उन्हें राजकोट के एक अन्य जनमुनि के पास 'नेमिनाथचरित' प्राप्त हुआ। जब याकोत्री अपने देश को लौटे तब योरप का प्रथम महायुद्ध छिड़ गया और उनके द्वारा प्राप्त अन्यों का प्रकाशन रुक गया। सन् १९१८ ई० मे म्यूनिक की रॉयल एकेडेमी ने याकोबी द्वारा सम्पादित 'भविसयत्तकहा' प्रकाशित की। इसके कोई तीन वर्ष बाद अपभ्रंश की दूसरी रचना 'नेमिनाथचरित' मे से एक अन्तःकथा- 'सशंकुमारचरिउ'-लेकर उसे सम्भादित करके प्रकाशित किया। ये दोनों ही अन्य अत्यन्त परिश्रम से सम्मादित हुए थे। इधर बडौदा के महाराज सर सयाजी गायकवाड़ की अाशा से सन् १९१४ ई० मे श्रीचिमन- लाल डाह्याभाई दलाल ने पाटण के जैनग्रन्थ-भाण्डार की हजारों पुस्तकों की परीक्षा के उपरान्त कई अपभ्रंश-पुस्तकों का पता लगाया, जिनमे मुख्य ये हैं-सन्देशरासक, वज- स्वामिचरित्र, अन्तरगसन्धि, चौरंगसन्धि, सुलसाख्यान, पच्चरी, भावनासार, परमात्म- प्रकाश, आराधना, मयणरेहासन्धि, नमयासुन्दरिसन्धि, भविसयचकहा, पउमसिरीचरिउ इत्यादि (स्थूलाक्षराकित पुस्तके प्रकाशित हो चुकी हैं)। श्रीदलाल ने 'भविसयत्तकहा' का सम्पादन भी श्रारम्भ किया था, पर सन् १९१८ ई० में उनका अचानक स्वर्गवास हो गया । बाद में स्वर्गीय पाण्डुरंग गुणे ने इस कार्य को पूरा किया। यह संस्करण भी छपकर प्रका- शित हो चुका है। फिर तो बाद में और भी बहुत-सी अपभ्रश-पुस्तकों का पता चला। बहुत-से ग्रंथ-भाण्डारों में इन पुस्तको की भाषा को प्राकृत समझ लिया गया था और इस प्रकार वे उपेक्षित बनी रहीं। जब १९१८ ई० में भाण्डारकर रिसर्च इन्स्टीट्यूट की स्थापना हुई और डैफन कॉलेज में सुरक्षित प्रतियों उस संस्था मे लाई गई वो सुप्रसिद्ध विद्वान् मुनि जिनविजयजी ने जैनप्रन्थों का अवलोकन और परीक्षण किया। उस समय उन्हें अनेक महत्त्व- पूर्ण अपभ्रंश-प्रन्थों का पता लगा। 'पुफ्फयन्त' या 'पुष्पदन्त' का 'तिसष्टीलक्खण महापुराण'