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हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

हिन्दी-साहित्य का आदिकाल सम्भव भी नहीं थी। इतस्ततो विक्षिप्त संयोगलब्ध पुस्तकों और सूचनाओं के श्राधार पर विचार-प्रवाह की अविरल और अविच्छिन्न विचारधारा को खोज निकालना सम्भव नहीं था। अपने उत्कृष्ट रूप मे वह अटकल की बात होती और निकृष्ट रूप से गलत नतीजे तक ले जानेवाली । स्वर्गीय पडित रामचन्द्र शुक्ल ने इन पुस्तको को 'कविवृचसंग्रह' कहकर इनका बहुत ठीक परिचय दिया था। सन् ईसवी की उन्नीसवीं शताब्दी के बाद से काशी की सुप्रसिद्ध 'नागरी-प्रचारिणी सभा' ने पुराने हिन्दी-ग्रन्थो की खोज का कार्य शुरू किया और योडे ही दिनो मे सैकडों अज्ञात कवियों और ग्रन्थों का पता लगा लिया। समा की खोज- रिपोर्टों के आधार पर मिश्रवन्धुओं ने सन् १९१३ ई० में 'मिश्र-बन्धु-विनोद' नामक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा जो अपनी समस्त श्रुटियों और खामियों के बावजूद अत्यन्त उपादेय है। लेकिन है यह भी कविवृत्तसंग्रह ही। हिन्दी-साहित्य का सचमुच ही क्रमवद्ध इतिहास पं० रामचन्द्र शुक्ल ने 'हिन्दी-शब्द- सागर की भूमिका' के रूप मे सन् १९२६ ई० मे प्रस्तुत किया। बाद में यह कुछ परिवर्द्धन के साथ पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ। शुक्लजी ने प्रथम बार हिन्दी-साहित्य के इतिहास को कविवृत्तसंग्रह की पिटारी से बाहर निकाला। पहली बार उसमे श्वासोच्छु वास का स्पन्दन सुनाई पड़ा। पहली बार वह जीवन्त मानव-विचार के गतिशील प्रवाह के रूप मे दिखाई पडा । त्रुटियों इसमे भी हैं। 'धृत्तसंग्रह' की परम्परा उसमें समाप्त नहीं हुई है और साहित्य को मानव-समाज के सामूहिक चित्त की अभिव्यक्ति के रूप मे न देखकर केवल 'शिक्षित समझी जानेवाली जनता की प्रवृत्तियों के परिवर्चन-विवर्तन के निर्देशक के रूप मे देखा गया है। शुक्लजी की यह विशेष दृष्टि थी और इस दृष्टिभंगिमा के कारण उनके इतिहास मे भी विशिष्टता आ गई है। जिन दिनों उन्होंने इतिहास लिखने का कार्य शुरू किया था, उन दिनों वे अनुभव करने लगे थे कि कविवृत्तसंग्रहो से काम नहीं चल सकता। "शिक्षित जनता की जिन-जिन प्रवृत्तियों के अनुसार हमारे साहित्य में जो-जो परिवर्तन होते श्राये हैं, जिन-जिन प्रभावों की प्रेरणा से काव्यधारा की भिन्न-भिन्न शाखाएँ फूटती रही हैं उनके सम्यक् निरूपण तथा उनकी दृष्टि से किए हुए काल-विभाग के विना साहित्य के इतिहास का सच्चा अध्ययन कठिन दिखाई पड़ता था।" इस प्रकार सन् १९२६ में पहली धार शिक्षित जनता की प्रवृत्तियों के अनुसार होनेवाले परिवर्तन के आधार पर साहित्यिक रचनाओं के काल-विभाजन का प्रयास किया गया। उनकी दृष्टि व्यापक थी। उन्होंने अपने इतिहास के पुस्तक-रूप मे प्रकाशित प्रथम संस्करण मे आदिकाल के भीतर अपभ्रंश रचनात्रों को भी ग्रहण किया था । "क्योंकि वे सदा से भाषा-काव्य के अन्तर्गत मानी जाती रहीं । कवि- परम्परा के बीच प्रचलित जनश्रुति कई ऐसे भाषा-ऋषियों के नाम गिनाती चली आई है, जो अपभ्रंश में हैं- जैसे कुमारपालचरित और शाजघर-कृत हम्मीर-रासो।" इसके पूर्व ही प्रसिद्ध विद्वान् स्वर्गीय पं० चन्द्रधरशर्मा गुलेरी ने नागरी-प्रचारिणी पत्रिका के नवीन संस्करण (भाग २) मे बहुत जोर देकर बताना चाहा था कि अपभ्रंश को 'पुरानी हिन्दी' ही कहना चाहिए। उनका यह निबन्ध अब 'नागरी प्रचारिणी सभा की ओर से पुस्तक- रूप मे भी प्रकाशित हो गया है। गुलेरीजी ने तत्काल-पास अपभ्रंश रचनाओं का बड़ा सुन्दर विवेचन किया था, परन्तु प्रधान रूप से हेमचन्द्र के व्याकरण मे उदाहरण-रूप में आए हुए