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हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

१० हिन्दी साहित्य का आदिकानें है कि ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी मे दशावतारवर्णन बहुत आवश्यक समझा जाने लगा था। प्राकृतपैंगलम् मे उदाहरण रूप से उद्धृत कई छन्दो से दशावतार-चरित-वर्णन का श्राभास मिल जाता है। मूल रासो मे भी दशावतारवर्णनपरक कुछ कविताएँ अवश्य रही होगी। वर्तमान रासो मे भी दशावतार नाम का एक अध्याय जुडा हुया है। मूल ग्रन्थ से यह लगमग स्वतंत्र ही है। इसमें अच्छे कवित्व का परिचय है। जान पड़ता है कि क्षेमेन्द्र के दशावतारचरितम् की भाँति यह भी देशी भाषा में लिखा हुआ कोई स्वतंत्र ग्रन्थ था। वर्तमान रासो मे इसका दसम् नाम अब भी सुरक्षित है। दसम् अर्थात् दशावतारचरित । यद्यपि वर्तमान रामो में यह दूसरे समय के रूप में अंतर्मुक्त किया गया है तथापि इसका दसम् नाम उसमें दिया हुआ है। सम्पाटको को इस नाम की व्याख्या में कहना पड़ा है कि दसम् अर्थात् द्वितीय समय । जब तक यह स्वीकार न किया जाय कि दसम् नाम का दशावतारचरितविषयक कोई अलग ग्रन्थ था जो बाद मे रासो में जोड दिया गया तब तक 'दसम' अर्थात् 'द्वितीय' की ठीक-ठीक संगति नहीं लग सकती। परन्तु मेरे कहने का यह मतलब नहीं है कि यह दसम् नामक पुस्तक चद की रचना होगी ही नहीं। इसमे सुन्दर कवित्व है। यह किसी अच्छे कवि की रचना जान पडती है। इसमें राधा का नाम श्राया देखकर विदकने की कोई जरूरत नहीं है । यह विश्वास बिल्कुल गलत है कि जयदेव के पहले उत्तरभारत मे राधा शब्द अपरिचित था | मैंने 'हिन्दी-साहित्य की भूमिका में दिखाया है कि दसवीं शताब्दी मे आनन्दवर्धन को इस राधा का परिचय था। उन्होंने एक पुराना श्लोक उद्धृत किया है जिससे श्रीकृष्ण उद्धव से राधा का कुशल पूछ रहे हैं। श्लोक इस प्रकार है- तेषां गोपवधूविलाससुहृदः राधारहःसाक्षिणाम् । भद्रं भद्र ! कलिंदराजतनया- तीरे लतावेश्मनाम् ? इत्यादि इसी तरह ग्यारहवीं शताब्दी मे क्षेमेन्द्र ने भी अपने दशावतारचरित मे राधा की चर्चा की है। श्लोक इस प्रकार है- गच्छन् गोकुलगूढकुजगहनान्यालोकयन् केशवः । सोत्कठं व नितानतो वनभुवा सख्येव रुद्धाञ्चलः । राधाया न न नेति नीविहरणे वैक्लव्यलल्याक्षराः सस्मार स्मरसाध्वसाझ ततनोरोक्तिरिक्ता गिरः ॥ इसी प्रकार बेणीसंहार नाटक के इस श्लोक में भी राधा नाम है- कालिन्याः पुलिनेषु केलिकुपितामुत्सृज्य रासे रसे गच्छन्तीमनुगच्छतोन कलुषा कंसद्विषो राधिकाम् । तत्पादप्रतिमानिवेशि तपदस्योद्भूतरोमोद्गते- रक्षुण्णोऽनुनयः प्रसन्नदयितादृप्टस्य पुष्णातु वः ।