पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/१२६

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पंचम व्याख्यान होगा। उन्होंने उस नगर के चौहट्ट को चर्चर बनि से उद्दाम देखा था। इस चर्चरी का कोई निर्दिष्ट छद नहीं था। कबीरदास के बीजक में चाँचर नामक एक अध्याय है। इस चॉचर मे पुरानी चर्चरीका ही अवशेष है। बीजक की एक चॉचर इस प्रकार है- खेलति माया मोहिनी जिन्ह जेर कियो संसार । स्च्यों रंग ते चूनरी कोइ सुन्दरि पहिरे आय ।। - इसमे केवल गान का रूप ही नहीं लिया गया है, आध्यात्मिक उपदेश मे चर्चरी-जैसे लोकप्रिय गान के प्रिय विषय शृंगार रस का आभास देने का भी प्रयत्न है! __इसी प्रकार लोक-प्रचलित फाग आदि गानों का भी जैन मुनियों ने उपयोग किया है। जिनपद्म सूरि की पुस्तक 'थूलभद्द फागु' प्रसिद्ध ही है। इस विद्वान् कवि की रचना में अद्भुत नाद-सौन्दर्य है। बीजक का वसन्त इसी प्रकार लोक-प्रचलित काव्यरूप का अंगी- करण है। मापा इसकी अवश्य बदल गई है, पर यह इस बात का सबूत तो है ही कि उन दिनों के प्रचलित काव्यरूपों का सतों ने अपने ढंग से अपने उद्देश्य के लिये उपयोग किया है। अस्तु, अब फिर प्रकृव विषय पर लोटा जाय। ___सवत् १७१५ की लिखी हुई एक प्रति से संगृहीत और गोरखवानी मे उद्धृत पदों को 'सबदी' कहा गया है। जान पड़ता है, बीजक का 'शब्द' इसी 'सबदी' का संशोधन है। इस प्रकार यह 'सबदी' शब्द नाथपथी योगियों का है और कबीरपन्थ मे वह सीधे वहीं से श्राया है। निश्चय ही हमारे बालोच्यकाल मे इस ढंग मे पद बहुत प्रचलित थे। यह नहीं समझना चाहिये कि सिर्फ तुलसीदास ने ही 'साखी सबदी की निंदा की है। स्वय कबीरदास ने भी कहा है- माला पहिरे टोपी पहिरे छापतिलक अनुमाना। साखी सबदीगावत भूलै आतम खबर न जाना ।। इसका मतलब यह हुआ कि कबीरदास के पहले 'साखी सवदी' का खूब प्रचार था। वर्णमाला के अक्षरों से प्रारम्भ करके काव्य लिखने की प्रथा भी पहले रही होगी। जायसी का 'श्रखरावट' इसी पद्धति पर लिखा गया था। बंगाल के कई मुसलमान कवियों के लिखे चौतीसा नामवाले ग्रंथ मिलते हैं। ऐसा लगता है कि मुस्लिम सूफी सन्तों ने ही इस प्रथा का प्रचार किया होगा। परन्तु पदों का 'राग' नाम देकर लिखने की प्रथा कव से शुरू हुई यह विवादास्पद प्रश्न है। सिद्धा ने तो निश्चित रूप से पदों के साथ राग का नाम दिया है। इसलिये यह तो नहीं कहा जा सकता कि राग नाम देकर लिखने की प्रथा मुस्लिम काल के बाद चली है। शकुन्तला नाटक में सूत्रधार ने निम्नलिखित श्लोक कहा है- तवास्मि गीतरागेण हारिणा प्रसभं हृतः । एष राजेव दुष्यन्तः सारङ्गेणातिरंहसा ॥ १-५ इसमें पाए जानेवाले 'सारंग' शब्द पर थोडा विवाद हुश्रा है। कुछ लोग बताना चाहते हैं कि यहाँ 'सारग' शब्द पर श्लेष है। उसका एक अर्थ शार्टी या सारग नामक राग है और दूसरा हरिण। यदि यह वात सत्य हो तो मानना पड़ेगा कि रागी का प्रचलन छठी शताब्दी से ही है, परन्तु इसके बारे में कुछ निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता।