पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/११८

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पंचम व्याख्यान १७ है जो बहुत कुछ नाटिका के समान होता है । अन्तर सिर्फ यह है कि उसमे प्रवेशक और विष्कम्मक नहीं होते- सोसट्टश्रोत्ति भएणइ दूर जो णाडियाए अणुहरदी । किपुण पयेस विक्खंभाई इह केवलं णस्थि ॥ सो, सट्टक एक प्रकार का नाटक है या लौकिक तमाशा है नौटकी की तरह । 'रासक' भी इसी प्रकार का एक रूपकमेद है और छंद तो है ही। श्रीहरिवल्लभजी भायाणी ने सदेश- रासक की प्रस्तावना मे रासक छन्द और काव्यरूप पर विचार किया है। उससे जान पड़ता है कि रासक एक छन्द का नाम है। सदेशरासक का यह मुख्य छन्द है। इस पुस्तक का लगभग एक तिहाई हिस्सा रासक छन्द मे ही लिखा गया है । यह इक्कीस मात्रात्रों का छंद है। इसे अभावक भी कहते हैं। अनुमान किया जा सकता है कि शुरू-शुरू में रासकजातीय ग्रन्थ प्रधानतः इसी छद मे लिखे जाते होंगे। रासक का एक उदाहरण यह है- त नि पहिय पिक्खविणु उकखिरिय मंथर गय सरलाइचि उतावलि चलिय । तह मणहर चल्लंतिय चंचल रमण भरि छुड़विखिसियरसणालि किंकिणि स्व पसरि । संदेशरासक २। २९(३) वह प्रियोत्कठित उस पथिक को देखकर मथर गति को सरल करके उतावली होकर चली। मनोहर भाव से उस प्रकार चलती हुई उस नायिका के कटि-प्रदेश से खिसक कर करधनी गिर गई और उसकी किंकरिणयों की ध्वनि वायुमडल में फैल गई।] ___ श्रीजिनदत्त सूरि की चर्चरी में इसी छद का व्यवहार है। उनके उपदेशरसायनरास मे दूसरे छद का प्रयोग है जिसे टीकाकार ने पद्धटिका-बध कहा है। यह चौपाई जैसे १६ मात्रा के छद में है। टीकाकार ने बताया है कि यह सभी रागों मे गाया जा सकता है- अत्र पद्धटिकाबंधे मात्राः षोडशपादगाः। अयं सर्वेषु रागेषु गीयते गीतिकोविदः ॥ इससे जान पड़ता है कि पद्धटिका-बंध चौपाई छंदों में भी होता था। पद्धरी वस्तुतः १६ मात्रा का छंद है और इसमे रचना करते समय कवियों ने यथेच्छ स्वाधीनता का परि- चय दिया है। पर चौपाई को पद्धडिया कहने का रिवाज बहुत पुराना नहीं जान पड़ता। विरहाइ ने अपने वृत्तजातिसमुच्चय मे दो प्रकार के रासककाव्यों का उल्लेख किया है। एक में विस्तारितक या द्विपदी और विधारी वृत्त होते थे और दूसरे मे अहिल्ल, दोहा, मचा, रख और ढोला छद हुआ करते थे। सदेशरासक दूसरी श्रेणी की रचना है। स्वयम् अपने स्वयंभूछन्दस् में बताते हैं कि रासाबंध में धत्ता छड्कुणिया (छप्पय ?) और पद्धड़िया के प्रयोग से जनमन-अमिराम हो जाता है- घत्ता छड्डणियाहिं पद्धडियाहिं रूए हिं । रासाबंधो कव्वे जणमण अहिरामओ होहि ॥