पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/११०

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पंचम व्याख्यान अर्थात् मैंने समझा था कि कोई निशाचर मृगलोचनी को हरण किए जा रहा है; लेकिन यह मेरी गलती थी। इस गलती को मैने तब महसूस क्रिया जब कि नवीन विद्युत् से नयुक्त श्यामल मेघ बरसने लगे। जैकोबी को लगा था कि यह भाषा कालिदास की नहीं हो सकती। अर्थात् यह प्रक्षिप्त है। मात्र के बारे में भी किसी-किसी को सन्देह है। इमी शब्दावली से मिलता-जुलता दोहा हेमचन्द्र के व्याकरण मे भी है- मइं जाणिउं प्रियविरहियह, कचि घर होइ विवालि । एवर मियत वि तिह तवद, जिह दिण्यरु खयगालि || -हेमचंद्र०४ अर्थात् मैंने समझा था कि प्रिय-विरहिता नारियों को कम-से-कम सायंकाल कुछ सहारा मिल जाता होगा। पर यहाँ तो मृगाई भी इस मोंति तपता है जैसे प्रलयकाल का सूर्य हो। छः मी वर्ष बाद एक-सी पदावली का आना बहुत आश्चर्य की बात नहीं है; पर सन्देह जगा देने की योग्यता तो उसमे है ही। परन्तु यह दोहा कालिदास में प्रक्षिप्त हो या न हो, इसमे कोई सन्देह नहीं कि अपभ्रंश का साहित्य ५वीं-६ ठी शताब्दी में काफी मात्रा में वर्तमान था। दण्डी और भामह ने उस साहित्य को देखा था और एकाध शताब्दी बाद के तो कई अपभ्रंश काव्य और दोहा-ग्रंथ मिल भी गए हैं। अपभ्रश को 'दूहाविद्या' कहा गया है। इससे भी पता चलता है कि शुरू-शुरू मे दोहा अपभ्रंश का प्रतीक था। शेखों और जनों के कई दोहाबद्ध अपभ्रंश-काव्य मिले हैं। परमात्म-प्रकाश के दोहो को सातवीं शताब्दी का बताया गया है; परन्तु मैंने अन्यत्र दिखाया है वे कि दोहे नवीं-दसवीं शताब्दी के पहले के नहीं हो सकते। यदि जंगल मे भटकते हुए प्रिया-विरह से व्याकुल राजा के प्रलाप में कवि ने तत्काल- प्रचलित ग्राम्यजन के गेय पदों में से एकाध पद्य कहलवा दिया हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। माइल्ल धवल की उक्ति से स्पष्ट ही है कि अपभ्रश या दोहाबंध उन दिनो भले श्रादमियों की हँसी की चीज थी। इस दृष्टि से विक्रमोर्वशीयवाले दोहे को प्रक्षिप्त कहने की कोई आवश्यकता नहीं है। जिस प्रकार गाथा को बहुत बाद साहित्यकारों का करावलम्ब मिला उसी प्रकार दोहा को भी कुछ दिनों बाद ही उपरले स्तर के साहित्यकारो का सहयोग मिला होगा। यह कह सकना कुछ कठिन ही है कि आमीर या अहीरजाति से इस छन्द का क्या सम्बन्ध था। नाट्यशास्त्र में कथित जिस उकारबहुला भापा को श्रामीरों से सम्बन्धित किया गया है, वह अपभ्रश ही थी। दण्डी ने भी आभीर श्रादि की वाणी को अपभ्रंश ऋहा है और प्राकृतपंगलम् में एक विशेष छन्द को भाभीर या अहीर नाम दिया गया है। इस श्राभीर या अहीर छन्द में दोहा के द्वितीय और चतुर्थ चरण के समान ग्यारह मात्राओं के चार समान चरण होते हैं। इस छन्द का लक्षण इसी छन्द मे इस प्रकार है- ग्यारह मत्त करीज, अन्त पोहर दीज। एहु सुछंद अहीर, जंपड़ पिंगल धीर । -प्राकृतपैंगलम् सो, इसका कुछ मंबंध दोहे से खोजा जा सकता है। अाधुनिक अहीरों के अत्यन्त निय विरहा-गान का खाका मूलतः दोहा छन्द ही है। सोरठा का संबंध सौराष्ट्र से जोड़ा