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हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

हिन्दी साहित्य का आदिका पृथ्वीराज संयोगिता के महल के नीचे मछलियों को मोती चुगा रहे थे। संयोगिता की सखियों ने देखा, संयोगिता ने भी देखा। क्या देखा ? हृदय के श्राराध्य प्रेममूर्ति पृथ्वीराज मछलियों को मोती चुगा रहे हैं। एक क्षण के लिए संदेह हुआ | चित्रसारी मे जाकर पृथ्वीराज का चित्र देखा और विश्वास हो गया कि निस्सन्देह यही वह राजा है जिसकी मूर्ति के गले मे संयोगिता ने अपनी वरमाला डाल दी थी। और फिर पृथ्वीराज ने भी संयोगिता को देखा। क्या देखा?- कुंजर उप्पर सिंघ सिंघ उप्पर दोय पन्वय । पन्वय उप्पर भृज भृङ्ग उप्पर ससि सुम्भय । ससि उप्पर इक कीर कीर उप्पर मृग दिछौ। मृग उप्पर कोवंड संघ कंद्रप्प बयटौ। अहि मयूर महि उप्परह हीर सरस हेमन जो । सुर भुवन छडि कवि चंद कहि तिहि घोषे राजन परयो ।। इसके बाद प्रेम का देवता अपनी स्वाभाविक गति से आगे बढ़ने लगता है | संयोगिता ने दासी के हाथ से थाल मे मोती मिजवाया। पृथ्वीराज अन्यमनस्क भाव से उन मोतियों को भी मछलियों को चुगाते रहे । फिर वासी ने ऊपर इशारा करके संयोगिता को दिखाया। कवि ने बड़ी कुशलता के साथ प्रेमियों के भाव-परिवर्तन का चित्रण किया है। संयोगिता की विचित्र स्थिति है, बोले कि न बोले ? बोले तो हाथ से चित्त ही निकल जाय और न बोले तो हृदय फट जाय ! भइ गति सॉप लछदरि केरी!- जो जंपो तो चित्त हर अनजम्पै विहरन्त । अहि ड? छच्छुन्दरी हियै विलम्गी वन्ति ॥ परन्तु, अन्त तक त्रिभुवनविजयी प्रेमदेवता की ही जीत होती है। पृथ्वीराज महल में लाए जाते हैं और गधर्वविवाह हो जाता है। इसी समय पृथ्वीराज को खोजते हुए गुरुराम गंगा के तट पर श्रा जाते हैं और उनसे सेना का हाल सुनकर पृथ्वीराज चल देते हैं। युद्ध फिर बीच मे भयकर ध्वनि के साथ श्रा उपस्थित होता है। संयोगिता व्याकुल हो उठती है। माता-पिता की इच्छा के विरुद्ध उनके शत्रु को प्रेम करनेवाली बालिका के हृदय की दशा बड़ी ही करुण थी। वह व्याकुलभाव से रोकर मूर्छित हो गई। इसी समय पृथ्वीराज उपस्थित हुए। संयोगिता को घोड़े पर बैठाकर वे दिल्ली की ओर चले । जुझाऊ बाजे बजते रहे, तलवारे खनखनाती रही, घोडे दौड़ते रहे, सूर-सामन्त युद्धोन्माद मे पगे रहे। भयंकर युद्ध हुश्रा। पृथ्वीराज के राजभक सामन्त कई दिनों तक लड़ते रहे और राजा अपनी प्रिया के साथ भागते रहे। वीररस की पटभूमि पर यह प्रेम का चित्र बहुत ही सुन्दर निखरता है, पर युद्ध का रंग बहुत-बहुत गाढ़ा हो गया है। प्रेम का चित्र उसमें एकदम डूब गया है। कथा का प्रारम्भ जिस प्रकार हुअा था उससे लगता है कि प्रेम के चित्र को इस प्रकार युद्ध के गहरे रंग में नहीं डूबना चाहिए । यह युद्ध प्रेम का परिपोषक होकर आया है। या तो युद्ध का इतना गाढा रंग बाद के किसी