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की जगह एकत्र' नहीं दे सकते । एकत्र छात्रा' का अर्थ हो गा---एक जगह छात्र। हिन्दी में भी एकत्र' का अर्थ एक जगह ही है। कैसी स्थिति है ! एकत्र गगनचुम्बी अट्टालिकाएँ, अपरत्र बच्चों को सिर छिपाने के लिए भी छाया नहीं ?” एकत्र'--एक जगह । 'अपरत्र'—दूसरी जगह । सो, ‘इका-इकट्ठी' के अर्थ में एकत्र एकदम गलत है । न संस्कृत में एकत्र' विशेषण, न हिन्दी में ही । ब्रजभाषा में एकत’ भी विशेषण नहीं है। परन्तु देखना तो यह है कि हिन्दी में प्रचलित एकत्रित’ गलत है क्या ? क्यों गलत है ? संस्कृत में तत्र' आदि अव्ययों से तद्धित प्रत्यय कर के संतत्रत्य' अादि विशेषण बनते हैं----*ते त्रत्याः पुरुषाः तत्रत्यं फलम् । “तन अव्यय से तत्रत्य विशेषण । अत्र' से 'अत्रत्य’ और ‘कुतः' से कुतस्य' । परन्तु ‘एकत्र' से ' प्रत्यय नहीं होता । “एकत्रल्थ' बोलने में अटपटा सा लगता है। इसी लिए न चला हो । हिन्दी 'अपने' अव्ययों से----( कब कहाँ' आदि से) कोई तद्धित प्रत्यय कर के विशेषण नहीं बनाती । संस्कृत के भी अत्र सर्वत्र' श्रादि से कोई विशेषण नहीं बनाती । परन्तु एक एकत्र से ही ‘इत' प्रत्यय कर के एक- त्रित’ बनाती है । संस्कृत का अव्यय और संस्कृत का ही इत' तद्धित-प्रत्यय । दोनों को मिला कर एकत्रित’ ‘अपना’ शब्द। किसान के यहाँ से दूध लिया, वहीं से शक्कर ली और हलवाई ने बढ़िया कलाकन्द तयार कर दिया। किसान के यहाँ कलाकन्द नहीं बनता, तो न बने ! इस से हलवाई कलाकन्द बनाना बन्द न कर दे गा ।। हिन्दी की यह पद्धति अन्यत्र भी देख सकते हैं । संस्कृत में ‘अ’ स्त्री- प्रत्यय है। ‘दार' शब्द ‘भाय' के अर्थ में वहाँ पुल्लिङ्ग है। हिन्दी ने वहाँ का

  • दार लिया और वहीं का ‘अ’ स्त्री-प्रत्यय ले कर उस (‘दार) में लगा दिया

और ‘दार' अपना स्त्रीलिङ्ग शब्द बना लिया | ‘अप्सरा' भी ऐसा ही है । मतलब यह कि 'एकत्र' संस्कृत अव्यय से भी ‘इत' प्रत्यय हिन्दी में होता है । श्राप कहें गे कि तो फिर सर्वत्र” से “सर्वत्रित' क्यों नहीं होता ? उत्तर है कि नहीं होता है; बस ! संस्कृत में ही ‘तत्र' से 'तत्रय' होता है; पर

  • सर्वत्र' से 'सर्वत्रत्य' क्यों नहीं होता ? 'शब्द-स्वभाव एषः' ! भाषा फी

प्रकृति ! किसी का जोर नहीं !