यह इस लिए कि हिन्दी के गठन में नपुंसक-लिङ्ग जैसी कोई चीज है ही
नहीं ! जहाँ संस्कृत में नपुंसक-लिङ्ग सामान्य-प्रयोग में चलता है, हिन्दी में
वाँ पुंप्रयोग चलता है। कुछ उदाहरण-
मधुरं भोक्तव्य---मीठा खाना चाहिए
प्रभाते सर्व शोहे---सबेरे सब कुछ अच्छा लगता है।
सदा मधुरं वक्तव्यम्---सदा काठा बोलना चाहिए।
मह्य' मधुरं न रोदते—मुझे मीठा अच्छा नहीं लगता।
संस्कृत में क्रिय-दिशेवर सद, नपुंसक लिंङ्ग कसुन रहते हैं और यहाँ
( हिन्दी में ) सदा पु० एकवचन ! यह सब क्रिया-प्रकरण में स्पष्ट हो गा।
दिइन्ज-क्रिया संस्कृत में ( सामान्ये ) अन्यपुरुष एकवचन रहती हैं।
हिन्दी में भी यही स्थिति है । ‘कास ब्बियेत, न च चौर्य समाश्रयेतुः-- भले ही
मर जा; पर चोरी न करे । कर्ता का निर्देश अनावश्यक है; क्यों कि ऐसी
विधिं पशु-पक्षियों के लिए तो होती ही नहीं है । संक्षेप यह कि सामान्य
प्रयोग पुल्लिङ्ग इक्वन्दन में और अन्य पुरुष एकवचन में होते हैं ।
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