पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/२९३

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यह इस लिए कि हिन्दी के गठन में नपुंसक-लिङ्ग जैसी कोई चीज है ही नहीं ! जहाँ संस्कृत में नपुंसक-लिङ्ग सामान्य-प्रयोग में चलता है, हिन्दी में वाँ पुंप्रयोग चलता है। कुछ उदाहरण- मधुरं भोक्तव्य---मीठा खाना चाहिए प्रभाते सर्व शोहे---सबेरे सब कुछ अच्छा लगता है। सदा मधुरं वक्तव्यम्---सदा काठा बोलना चाहिए। मह्य' मधुरं न रोदते—मुझे मीठा अच्छा नहीं लगता। संस्कृत में क्रिय-दिशेवर सद, नपुंसक लिंङ्ग कसुन रहते हैं और यहाँ ( हिन्दी में ) सदा पु० एकवचन ! यह सब क्रिया-प्रकरण में स्पष्ट हो गा। दिइन्ज-क्रिया संस्कृत में ( सामान्ये ) अन्यपुरुष एकवचन रहती हैं। हिन्दी में भी यही स्थिति है । ‘कास ब्बियेत, न च चौर्य समाश्रयेतुः-- भले ही मर जा; पर चोरी न करे । कर्ता का निर्देश अनावश्यक है; क्यों कि ऐसी विधिं पशु-पक्षियों के लिए तो होती ही नहीं है । संक्षेप यह कि सामान्य प्रयोग पुल्लिङ्ग इक्वन्दन में और अन्य पुरुष एकवचन में होते हैं ।