सदा सुखी रहता है। इसी तरह ‘कुछ का यह मत है, कुछ इससे भिन्न
मत रखते हैं । विद्वान् तथा ‘कुछ विशेषणों के विशेष्य स्वतः समझ में
आ जाते हैं; इस लिए प्रत्यक्ष प्रयोग नहीं हुश्रा । ‘विद्वान्’ मनुष्य ही होता है।
और वैसा भत' भी मनुष्य ही रखते हैं।
मतलब यह कि प्रयोग-भेद से शब्दों का श्रेणी-भेद होता है। कुछ
के साथ एक लगाकर कुछेक प्रयोग ठीक नहीं है। विशेष संख्या का
ज्ञान होने पर विशेष संख्यावाचक शब्द आते हैं, परन्तु जब ऐसा न हो, या
निश्चित संख्या बताना अभीष्ट न हो, तब कुछ आता है---‘कुछ छात्र
आए थे ! इसी तरह परिमाण में कुछ दूध रखा भी है। यहाँ ‘कुछ
के श्रागे 'एक' लगाना व्यर्थ है। कुछ से ही मतलब पूरा हो जाता है ।
सच बात तो यह है कि ‘क’ का प्रयोग ऐसी जगह भ्रमात्मक है। ‘कुछ
अनेकत्व का वाचक है और 'एक' शब्द इसके विपरीत है-निश्चित रूप से
‘एक' का बोधक है। तत्र ‘कुछ के साथ ‘एफ' का क्या मेल ? इसी तरह
- चार एक श्रादि गलत प्रयोग हैं।
| बात यह है कि संस्कृत में अल्पाथक “क' प्रत्यय है और स्वार्थिक' भी है। ‘बालः' से 'बालकः स्वार्थ में ‘क’ है। ‘हरिणकानां जीवितं चाऽति- लोलभ’ में ‘हरिण' हे ‘हरिणक' अल्पार्थ में रू' है। छोटे-छोटे हिरन
- हरिक' | हिन्दी में इन दोनों ‘क’ प्रत्ययों का ग्रहण है । ‘बहुतक कहाँ
कहाँ ल' में “बहुत' से 'बहुतक स्वार्थक ‘क’ है; परन्तु यहि घाटते थोरिक दुरि अहै' में ॐ' अल्पार्थक हैं। बिलकुल थोड़ी दूर थोरिक दुर' । राष्ट्रभार में सात दिन की बात है' में ‘क’ ‘लगभग' के अर्थ में है---- सात से कुछ कम दिन हों, या सात हौं । ‘धरीक हूँ ठाढ़े में भी यही बात है। 'एक घ’ मतलब नहीं है। इसी ‘क’ को लोगों ने एक समझ लिया और कुछेक साइ-ऋ' आदि लिखने लगे, जैसे कि ‘इकतारा' का सुधार
- कतारा’ सूझा ! ‘दुपट्टा' का भी ‘दोपट्टा' सुधार ! बलिहारी
सुधार की ! वस्तुतः ‘कृ’ तय ‘एकः ऋ बड़ा मेल है; ‘किसी दिन की गह एक दिन भी आ जाती हैं। संस्कृत में भी ‘कस्मिश्चिद्दिने की जगह 'एफस्सिन् दिने रहा हूँ । रूप भी-कस्मै-कस्में, कमात्-एकस्मात्, कस्मिन्-एकस्मिन् श्रादि समान ही होते हैं । इटा दो, ‘क’ रह जाए या; ‘ए’ हटा दो,