दोनो उदाह में वह तथा यह दूरस्थ तथा समीपस्थ विशेश्य की
ओर संकेत ६५ रहे हैं --'ह' के साथ ‘जो सर्वनाम भी आता है, यदि
संयुक्त-वक्य हो-
| ॐ ईमानदारी से काम करता है, वह सदा प्रसन्न रहता है और
उसी का सङ लोग सान करते हैं ।
| ईमानदारी से काम क़रने वाले के लिए जो छाया है और उसी का
परामर्श उत्तर पात्र में बइ तथा उस की' शब्दों से हुआ है। जिस की
लाठी, उस की भैंस।।
कदीर की वाणी में---
कबीर तेरी झोपड़ी, गलकटियों के पास ।
करे या, सो भरेगा, तू क्यों भया उदास ?
अहाँ करेगा' के पहले ज’ लुप्त है--जो करे या' यई स्पष्ट है। सत्ता
हो और प्रत्यक्ष दर्शन न हों, उसी को लोप' कहते है। अदर्शनं लोपः ।
कभी-कभी 'वह' का भी लोप होता है-
| भी उपद्रव करेगा; सजा पाएगा । उत्तर वाक्य में 'वह' झा
लोप है ।
बीर की उद्धृत वाणी में 'बह' के अर्थ में सो’ आया है। यह
काशी-बासी होने के कारण् । वहाँ ‘बद्द' के अर्थ में 'सो' जनभाषा में
गृहीत हैं। ब्रजभाषा में ‘व और सो’ दोनों चलते हैं। पूरब में भी
श्रोक्किा ' आदि में अह' की ही पूर्व-रूर श्रोह' है। इसीसे 'वह' है।
सो क्रोस > श्रोह'> वह है वहाँ कौन' के स्थान पर को चलता है।
ब्रजभाषा-साहित्य में कौन' दोनों चलते हैं । राष्ट्रभाषा में जो के
साथ 'बुद्ध' ही चलता हैं । अञ्चल इन्तर के जैसे को तैसा आदि प्रयोग ज्य
ॐ … चलाते हैं । इन्हें जैसे को वैसा नहीं कर सकते । मतलब ही न
निकलेवर } ज्यों-’ की शाई “ थों नहीं कर सकते । लाये सो
यावे” अदि मैं बह कर दें; तो मतलब अवश्य निकलेगा; परन्तु मला
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